पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८०६

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७६७ bum +++ HMAN भक्तिसुधास्वाद तिलक । निकाम, और कृपा करुणा के निधान थे । भगवद्भक्तों को अनन्य भजन दृढ़ कराने के लिये शरीर धारण किया । परमधर्म जो । पगवद्धर्म उसके सेतु ही विख्यात थे। वृन्दावन में गर्ज के अपने मुख से श्रीभागवतरूपी अमृत की मेघ के सम वर्षा करते थे। और किसी को भी मापसे दुख नहीं पहुँचता था। भाषा के प्रत्युत्कृष्ट कवि थे। इनके विरक्तता की अनेक प्रसिद्ध कथाएँ हैं॥ ये बंगाली नहीं थे, और बाँदावाले भी नहीं थे, और श्रीवल्लभाचार्यजी के शिष्य गदाधर मिश्र, दूसरे ही थे। "भट्ट गदाधर विद्या भजन प्रवीन । सरस कथा पानी मधुर, सुनि 'चि होत नवीन। (६६१) टीका । कवित्त । (१८२) "स्याम रंग रंगी" पद सुनिक, "गुसाईजी” पत्र दै पठाये उभे साधु वेगि धाये हैं। "रेनी बिन रंग कैसे चढ़यो” “अति सोच बढ्यौ," कागद में प्रेम मढ्यौ तहाँ लेके आये हैं । पुरढिग कूप, तहाँ बैठे रस रूप, लगे पूछिये को तिनहीं सों नाम लै बताये हैं । "रही कौन और, "सिरमौर वृन्दावन धाम," नाम सुनि मुरछा है गिरे प्रान पाये हैं ।। ५२३ ॥ (१०६) वार्तिक तिलक। श्रीगदाधरभट्ट जी, प्रथम अपने घर ही में, "सखी हौं श्याम रंग संगी। देख विकाय गई वह मूरति सूरति माहिं पगी इत्यादि।" यह पद बनाया। वृन्दावन में उसीको श्रीजीवगोसाईजी सुनके ऐसे मोहित हुए कि एक पत्र लिखा कि "रनी (रँगनेवाले के स्थान ) विनाही आपको श्याम रंग कैसे चढ़ गया ? मेरे मन में बड़ाही सोच है। ऐसा प्रेम मढ़ा हुमा पत्र दो साधुओं के हाथ आपके यहाँ भेजा। वे लेकर उसी नगर के समीप आये, एक कूप के ऊपर रसरूप श्रीगदाधरभट्टजी प्रभाती (दंतून) कर रहे थे, सो आप ही से वे पूछने लगे कि “गदाधरमहजी इस ग्राम में कहाँ पर रहते हैं।"