पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७८८ 444a44444 श्रीभक्तमाल सटीक । आपने पूछा कि “आप कहाँ रहते हैं ?" संतों ने उत्तर दिया कि "सिरमौर वृन्दावन धाम में।" श्रीवृन्दावन' का नाम सुनते ही श्रीगदा- धरभट्टजी प्रेम से मूञ्छित हो गिर पड़े मानो प्राण निकल गये ॥ (६६२) टीका । कवित्त । (१८१) काहू कही "भट्ट श्रीगदाधरज एई जानौ” मानौ उही पाती चाह फेरिक जिवाये हैं । दियो पत्र, हाथ लियो, सीस सौं लगाय, चाय, बाँचत हो, चले, वेगि वृन्दावन आये हैं । मिले श्रीगुसाईज सों आँखें भीर श्राई नीर, सुधि न सरीर धरि वही गाये है । पढ़े सब ग्रंथ, संग, नाना, कृष्णकथा रंग रस की उमंग अंग अंग भाव छाये हैं ।। ५२४ ॥ (१०५) वात्तिक तिलक । श्रापकी दशा देख उन संतों से किसी ने कहा कि, “यही गदाधर- भट्टजी हैं।” तव उन संतों ने आपसे कहा कि "हम आपके लिये पत्र लेकर आये हैं" सो सुनकर उठ बैठे, मानो उस पत्र की चाह ही ने आपको फिरके जिला लिया। पत्र दिया, पाप हाथ में ले शीश और नेत्रों में लगाकर प्रेमानन्द से पढ़ और वैष्णवों को सत्कार कर सीधे श्रीवृन्दावन को चल ही दिये।। श्रीवृन्दवन में आकर श्रीजीवगुसाईजी से मिले, नेत्रों में प्रेमाम्बु का प्रवाह चलने लगा, देह की दशा भूल गई, फिर धैर्य धरके फिर वही पद गाने लगे। रहकर, संतसंग में उपासना के सब ग्रंथ पढ़, श्रीकृष्ण- कथा कहने लगे । आपके अंग-अंग में भाव रसरंग की उमंग छागई। फिर भाजन्म पर्यंत धाम ही में रहे । इनकी कथा सुनकर कितने ही पर्यत लोग विरक्त हो गए। (६६३) टीका ! कवित्त । (१०) नाम हो कल्यानसिंह जात रजपूत पूत, वैव्यो आप, कथा सों अभूत रंग लाग्यो है । निपट निकट वास “धौरहरा" प्रवास गाँव । हास परिहास तज्यो, तिया दुःख पाग्यो है ॥ जानी भट्ट संग सो अनंग वास दूर भई, करौ लेकै नई आनि हिये काम जाग्यो है।