पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८१

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६२ श्रीभक्तमाल सटीक । ___ वात्तिक तिलक । वारहो प्रधान भक्तराजों की कथाएँ "श्रीमद्भागवत" प्रभृति में व्यास शुकादि ने नाना प्रकार से कही हैं। परन्तु त्रिभुवन गुरु श्रीमहादेवजी की एक वात प्रायः सब लोग नहीं जानते, सो उस अपूर्व वार्ता को सुनके, अपने हृदय को श्रीसीताराम भक्तिरस में सान देना चाहिये, देखिये श्रीमहेश्वरजी श्रीसीतारामभक्ति के भाव में अपने मन को कैसा उलझाए (अटकाए हुए हैं। श्रीशंकरजी तो परमप्रवीण ही हैं परन्तु “सती" जी ने मोहवश श्रीमहादेवजी से कहा कि "हे प्रभो । इन (श्रीराम) को श्राप प्रवीण परमेश्वर परमात्मा कहते हैं सो कैसे ? क्योंकि इनका यह कौतुक नवीन तो देख ही रही हूँ कि खी श्रीसीता के वियोग से वन में ये विकल है।" तव श्रीशिवजी ने बहुत समझाया पर न समझी, और परीक्षा लेने को चली ही। तब जगद्गुरु श्रीशिवजी ने वरज दिया कि "सावधान, कोई अविवेक की क्रिया मत करना।" तथापि, सतीजी ने जगज्जननी स्वामिनी श्रीराममिया श्रीजानकोजी महारानी का सा अपना रूप बनाया !! ( २८ ) टीका । कवित्त । (८१५) सीता ही सो रूप वेष, लेश हूँ न फेर फार, रामजी निहारि नेकु मन में न आई है । तब फिरि आइ कै सुनाइदई शंकर को, अतिदुःख पाइ, बहु- विधि समुझाई है । इष्ट को स्वरूप धस्यो, ताते तनु परिहलो, पलो बड़ो शोच मति प्रति भरमाई है। ऐसे प्रभु भाव पगे, पोथिन में जगमगे, लगे मोको प्यारे, यह बात झि गाई है ॥ २१॥ (६०८) वातिक तिलक । अपने जानते तो सती ने कुछ भी श्रीजनकलबाजी के रूप और वेष से अन्तर न रक्खा, पर सर्वज्ञ श्रीप्रभु उसको देख के मन में कुछ भी न लाए । तब फिर आके सतीजी ने श्रीशिवजी को सब सुना दिया, श्रीशिवजी ने मन में बड़ा ही दुःख पाया और अनेक प्रकार से सतीजी को समझाया कि तुमने मेरी परम इष्ट देवता स्वामिनी श्री