पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८२

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भक्तिसुधास्वाद तिलक । ndri HOMMONS- + + + drink i tuti+MM जानकी सीताजी महारानी का रूप धारण किया, अतः मैंने तुम्हारे इस शरीर में से पत्नीभाव को त्याग किया । श्रीसतीजी मति के भ्रमवश यों बड़े ही शोच में पड़ी । सो कथा प्रसिद्ध ही है कि सतीजी ने वह तन त्याग ही तो दिया और श्रीशिवजी से तव मिल सकी कि जव श्रीगिरि- वरराजकिशोरी हुई। अहो । धन्य श्रीगिरिजापति हैं कि अपने प्रभु के भाव में ऐसे पगे हुए हैं कि पुराणों में श्राप की भाव भक्ति की कथाएँ जगमगा रही हैं। यह बात अतिशय प्रिय मुझे लगी, इससे रीझ २ के गान किया है। (२९) टीका । कवित्त । (८१४) चले जात मग उभे खरे शिव दीठि परे, करे परनाम, हिय भक्ति लागी प्यारी है। पार्वती पूछे “किये कौन को ? जू ! कहो मोसों, दीखत न जन कोऊ" तब सो उचारी है ॥ "बरष हजार दस बीते तहां भक्त भयो, नया भोर है है दूजी ठौर वीते धारी है।" सुनिकै प्रभाव, हरिदासनि सों भाव बढ्यो, रद यो कैसे जात चढ्यो रंग अति भारी है ॥ २२॥ (६०७) __वातिक तिलक । एक समय श्रीचन्द्रभूषण अपनी प्राथप्रिया श्रीपार्वतीजी के सहित कैलास शिखर को छोड़कर भूमण्डल में विचरने के हेतु निकले, मार्ग में दो उजड़े २ छोटे ग्रामों के टीले (खरे) देख के नन्दी से उतर के दोनों को प्रणाम किया। क्योंकि भक्तों की भक्ति आप को अति ही प्यारी लगती है । तब श्रीपार्वतीजी ने पूछा कि “प्रभो ! आपने प्रणाम किस को किया ? प्रत्यक्ष में तो कोई जन दिखाई देता ही नहीं।" श्रीमहा- देवजी ने उत्तर दिया कि “हे प्रिये । यह जो एक टीला दीखता है तहां दस हजारवर्ष बीते एक श्रीसीता-रामानुरागी परमभक्त निवास करते थे, और वह जो दूसरा खेरा दिखाई दे रहा है उसमें दस सहन वर्ष व्यतीत होने पर एक दूसरे भक्तराज निवास करनेवाले हैं। इसीसे ये दोनों स्थल मेरे वन्दनीय हैं" ऐसा श्राश्चर्यजनक प्रेम देख और भागवत प्रभाव सुनके, श्रीपार्वतीजी ने इस बात को अपने मन में धारण किया,