पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८१३

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७९४ mp4 ++andu धीभक्तमाल सटीक। (१७२) श्रीकरमानन्दजी। (६७०) टीका । कवित्त । (१७३) करमानंद चारन की बानी की उचारन मैं, दारुन जो हियौ होय, सोऊ पिघलाइयै । दियौ गृह त्यागि हरिसेवा अनुराग भरे, बटुवा सुग्रीव हाथ छरी पधराइयै ॥ काहू ठौर जाय गाडि, वहीं पधराये वापै ल्याए उर प्रभु, भूलि आये ! कहाँ पाइये । फेर चाह भई, दई श्याम को जताप बात, लई मँगवाय, देखि मति ले भिजाइये ॥ ५३१ ।। (६८) वार्तिक तिलक । श्रीकानन्दजी चारण (गायक) की वाणी का उच्चारण गान सुन, कैसा ही कठोर हृदय होय, पर कोमल ही हो जाता था। आप गृहत्याग के तीथादि दर्शन के लिये विचरने लगे, श्रीहरिपूजा सेवा के अनुराग में भरे, ठाकुर सालग्रामजी का बटुवा कंठ में, और हाथ में एक कुबरी छड़ी रखते थे, उसी को गाड़कर प्रभु का बटुआ झूला सा उसमें लटका देते थे। किसी एक ठिकाने गाड़कर श्रीठाकुरजी को पधराया, चलते समय प्रभु को तो ले लिया पर छड़ी उसी ठिकाने भूल आये । फिर दूसरे ठिकाने आकर देखें तो प्रभु के विराजने के लिये बड़ी नहीं, तब तो श्रीश्यामसुन्दरजी से विनय करने लगे कि “प्रभो ! उस समय मुझे श्रापने कृपाकर सुधि न करा दी ! अब मैं आपके विराजने के लिये छड़ी कहाँ पाऊँ ?" प्रभु ने आपकी सच्ची सुन्दर प्रार्थना सुन प्रसन्न हो वहाँ ही छड़ी ऊपर से गिरा दी। आपने देखकर बड़ी धन्य- वादपूर्वक ले, प्रेम से भीग के उसी में प्रभु को पधरा दिया । दो० "प्रेम मग्न कछु समय रहि, पुनि मन चाहिर कीन्ह । तब चारण निज नियम सों, सेवै पूजे लीन्ह ॥" (१७३ । १७४) श्रीकोल्हजी, श्रीअल्हूजी। (६७१) टीका । कवित्त । (१७२) कोल्ह अल्हू भाई दोऊ, कथा सुखदाई सुनौ, पहिलो विरक्त