पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८१४

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IndurNepalimentarpurwa भक्तिसुधास्वाद तिलक । मद मांस नहीं खात है। हीर ही के रूप गुण वाणी में उचार करे, धेरै भक्ति भाव हिये, ताकी यह बात है ।। दूसरौ अनुज, जानौ खाय

  • सब उन मानौ, नृपही को गावे प्रभु कमैं गाय जात है। बड़े के

अधीन है, सोई करे जोई कहै, ईश करि चहै, श्राप दीनता मैं गत है ।। ५३२ ॥ (१७) वात्तिक तिलक । जातिके चारन जेठे श्रीकोल्हजी और छोटे श्रीअल्हूजी, दोनों नाइयों की सुखदाई कथा सुनिये । श्रीकोल्हजी विषय से विरक्त मद मांसादि तजके श्री हरि के नाम रूप गुण वाणी से उच्चारण करते गाते भक्ति भाव हृदय में सदैव धारण करते थे। दूसरे आपके छोटे भाई अल्हूजी सब खाते पीते सदा राजा ही का गुण गान करते, कभी कभी श्रीप्रभु का भी यश गान कर लेते थे । परन्तु अपने बड़े भाई के आधीन आज्ञाकारी रहते, ईश्वर के समान मानते, श्राप दीनता में लीन रहते थे। (६७२ ) टीका । कवित्त । ( १७१ ) बड़े प्राय कही चलो द्वारिका निहार सही, मिथ्या जग भोग, या मैं मायु ही विहात है। आज्ञा के अधीन चल्यो, आये पुर, लीन भये, नये चोज मंदिर मैं, सुनो कान वात है ॥ कोल्ह नै सुनाये सब ने जे नाना बंद गाये, पाछे अल्हू दोय चार कहे सकुचात है । भखो हो हु"कारी, प्रभु कही माला गरें डारो, ल्याए पहिराचें, कह्यो , "मेरौ बड़ी भात है" ॥ ५३३ ॥ (६६) पातिक तिलक। एक दिवस कोल्हजी ने अल्हूजी से कहा कि “चलो द्वारिकाधीशजी के दर्शन करें क्योंकि यह संसारी भोग सब झूठा है, इसमें पड़े रहने से वृथा वायु चली जाती है । श्रीअल्हूजी बड़े भाई के आज्ञा- कारी तो थे ही, साथ साथ चल दिये, दोनों भाई द्वारिकापुरी में श्रा, स्नानादि कर, प्रभु के मंदिर में आये । सो वहाँ की नवीन चमत्कार । युक्त वार्ता कान देके सुनिये॥