पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८१५

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+- aren- श्रीभक्तमाल सटीक । प्रथम श्रीकोल्हजी ने जो जो छन्द पदों में प्रभु के यश रचे थे सो सब सुनाये, पीछे श्रीश्रल्हूजी ने भी दीनता ग्लानि संकोचयुक्त दो चार पद सुनाये । इनके पद सुनते ही प्रभु"हुँ" कारी देते थे और अपनी प्रसादी माला देने की आज्ञा दी। पुजारी माला पहिराने को लाये, श्रीअट्टजी ने कहा कि “मेरे बड़े भाईजी को माला दीजिये, मैं माला पाने का पात्र नहीं हूँ।" ( ६७३ ) टीका । कवित्त । ( १७०) , दयो पै न याहि दयो बड़ो अपमान भयो, गयौ बूड़यो सागर मैं, दुखको न पार है । बडतहीं आगे भूमि पाई, चल्यो भूमि प्रीति, सो अनीति भूलै नाहि मानौ तरवार है । साँही आये लैन हरिजन, मन चैन मिल्यो, मिल्यौ कृष्ण जाय, पायौ अति सुखसार है। बैठे जब भोजन को दई उभे पातर ले दूसरी जू कैसी कही वही भाई प्यार वात्तिक तिलक। पुजारी ने उत्तर दिया कि बड़े भाई को तो प्रभु की आना ही नहीं, कैसे हूँ तुम्हारे ही लिये पाना है," और श्रीमल्हुजी के गले में माला डाल दी तब कोल्ह अपना प्रति अपमान जान अति दुखी होकर जा समुद्र में डूब गये । डूबते ही नीचे भूमि मिल गई, तब प्रीतिपूर्वक आगे को चल दिये, परन्तु माला न पाने का अपमान भूलता नहीं। खड़ग लगने का सा दुःख हो रहा । उधर से हरिपार्षद माके लिवा ले चले तव मन में सुख हुधा और आगे जाके श्रीकृष्णचन्द्रजी का दर्शन प्रणाम कर अति आनन्द को प्राप्त हुए ॥ जब प्रसाद लेने को बैठे तब प्रभु की आज्ञा से दो पत्रों में प्रसाद पूर्ण कर पार्षदों ने दिया । श्रीकोल्हजी ने पूछा कि "दूसरा पारस किस के लिये है ?" आज्ञा हुई कि “तुम्हारा छोटा भाई जो हमारा प्यारा है उसके लिये लेते जाना॥ (६७४) टीका । कवित्त । (१६९) सबै विष भयो, दुख गौ सोई हुयो नयौ, दयौ परमोध वाकी है