पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

८०२ - + - +-+ ++ +AN- + + + + + + + + + श्रीभक्तमाल सटीक । असुर 'अजीज * अनीति अगिनि मै हरिपुर कीधौ । साँगन सुत नैं सादराय रनकोरै दीधौ ॥धरा धाम धन काज मरन बीजाहूँ माँडै । कमधुज कुटकै हुवौ चौक चतुरभुजनी चाँडै ॥ बादै लवाढ कीबी कटक, चाँद नाम चाँडै सबल । द्वारिका देखि पालंटती,अचढ़ सी0 कीधी अटल ॥१४१॥ (७३) वार्तिक तिलक। पालंटती (जलकर पलट के छार), अचढ़ (दौड़ाकर चढ़), कीधी अटल (अचल कर दी),असुर ( मुसलिम ), कीधौ ( कर दिया ), नैं (समीप) सांगनसुत ( सीवाँजी), दीधौ ( पुकार दिया ), मॉडे (करते हैं ), कुटके ( कटक ), कमधुज हुवो (कवन्ध होकर ), चाँडै (प्रवल लड़े ), बाढ़ (धार), कीधी (कर दिया) | कावावों के देश की भाषा॥ (६८२) टीका । कवित्त । (१६१) । कावा पति, सीवाँ, सुत साँगन को, प्यारी हरि, दारावति ईश, यों पुकारें रक्षा कीजिये । सदा भगवान आप भक्त प्रतिपाल करें करो प्रतिपाल मेरौ सुनि मति भीजिये ।। तुरत अजीज नाम धामकों लगाई आगि लई वाग घोरन की आये ट्रक कीजिये । दुष्ट सब मारे प्रभु कष्ट ते उवारे निज पान वारि डारे यह नया रस पीजियै ॥ ५४१॥ (८) ___ वात्तिक तिलक। एक समय स्वयं श्रीदारिकाधीश रणछोरजी ने, अपने परम प्रिय भक्त, श्री "सीवाँ” जी, "साँगन" जी के पुत्र, 'कावा' जाति के लोगों के स्वामी (राजा) को, (जाके, स्वरूप घर, दर्शन दे) सादर यों पुकारा कि “हे भक्त ! हे वीर ! मेरी तथा मेरी पुरी की रक्षा कीजिये, “अजीज खाँ" असुर (तुर्क) ने, मेरी पुरी द्वारावती को, अनीति दुष्टता से अग्निमय कर दिया है।"

  • अजीज