पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८२२

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८०३ +++++artmeHARupnage me n dometweaurav भक्तिसुधास्वाद तिलक । प्रभु की पुकार सुन, श्रीसीवाजी ने विचार किया कि जो भगवान स्वयं सब भक्तों का सदैव प्रतिपाल करते हैं, सो दयालु मुझ दीन को अपने धाम सहित अपनी रक्षा करने के लिये आज्ञा दे रहे हैं, इससे श्रीसीवाजी की मति प्रेम से भीग गई। बहुत ही शीघ्र, श्रीसीवाँजी ने शस्त्र ग्रहण कर, घोड़े पर चढ़, थोड़ी सी सेना साथ ले, धावा किया । श्रीदारिकापुरी को अग्नि से क्षार होते देख, रक्षा की। अजीजखाँ के अधीन जो बादशाही फौज थी, श्रीसीवाजी ने उससे भारी मार काट मचा दी। सब सेना समेत दुष्ट अजीजखाँ को काट डाला, जहन्नुम (यमपुर) भेज दिया । दूसरे लोग तो अपनी भूमि गृह धन इत्यादिक के लिये युद्ध करके मर जाते हैं, पर ये (श्रीसीवाँजी) श्रीचतुर्भुज प्रभु के निमित्त, चौक में प्रति तीक्ष्ण युद्ध करके काम आए, अपने प्राण न्यवछावर कर दिये। धाम तथा धामी को कष्ट से छुड़ाया । मुक्त हो श्रीसीवाँजी परमधाम में विराजे । इस नवीन श्रात्मसमर्पण भक्तरूपी रस को पान कर जगत् में यश विस्तार कर गए । इस रस का आनन्द लीजिये । भक्तसुखद भक्तयशवर्द्धक प्रभु, नए नए अपूर्व ढंग से चमत्कृत चरित्र करके अपने भक्तों को विलक्षण बड़ाई और श्रानन्द देते हैं । कृपा की जय ।। इस (१४१ ) मुल में, बहुतेरे (कावाओं के देश की भाषा के) शब्दों के अर्थ, तथा “कमध्वज" वाली वार्ता, इस दीन की समझ में नहीं आई। विज्ञ महात्मा कृपाकर इसको सुधार लेंगे।


(१७८) श्रीमती रत्नावतीजी। (६८३) छप्पय । (१६०) पृथीराज नृप कुलबधू, भक्तृभूप "रतनावंती" ।। कथा कीरतन प्रीति भीर भक्तनि की भावै । महा । महोछौ मुदित नित्य नंदलाल लड़ावै ॥ मुकुंद चरण १ रलावती सुनलाजीत की कन्या है ।। --- ---