पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८२३

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५०४ 44+ 4 + + ++ + ++++ ......... श्रीभक्तमाल सटीक । चिन्तवन भक्ति महिमा ध्वजधारी। पति परलोभन कियौ टेक अपनी नहिं टारी ॥भल पन सबै विशेष ही आमेर सदन सुनखाजिती। पृथीराज नृप कुल बधू, भक्तभूप रतनावती" ॥१४२॥ (७२) वात्तिक तिलक । आमेर के राजा परम भक्त श्रीपृथ्वीराजजी के कुल की वधू श्री- "रत्नावती" जी श्रीहरिभक्तों में महारानी हुई । सत्संग, कथा, कीर्तन में अति प्रीतिवती हुई, और हरिभक्तों की भीड़ आपको परम प्यारी लगती थी। यानन्द से महामहोत्सव किया करती, नन्दलालजी को नित्य लाड़ खड़ाती थीं। मुकुन्दचरण चिन्तवन में तत्पर हो आपने भक्ति की महि- मा की ध्वजा गाड़ दी। लोकलाज और रानीपने को तज दिया, भजन सत्संग की अपनी टेक नहीं त्याग की, पति पर लोभ नहीं किया, किन्तु उसको भक्विविमुख जान उससे अपना चित्त हटा लिया। आमेर सदन वासिनी "सुनखाजीत" जी की सुता के भले पण (प्रतिज्ञा), तथा मलप्पन (भलाई) साधुता, का सब सज्जन लोग विशेष वर्णन करते हैं, ऐसी "श्रीरत्रावतीजी" हुई। (६८४) टीका । कवित्त । (१५९) मानसिंघ राजा ताको छोटो भाई माधोसिंघ, ताकी जानी तिया जाकी बात लै वखानिये । दिग जो खवासिनि सों स्वासनि भरत नाम स्टति जाति प्रेम रानी उर शानिय ॥ नवलकिसोर कk नन्द के किसोर क वृन्दावन चन्द कहि आँखें भरि पानिये । सुनत विकल भई, सुनिये की चाह भई, रीति यह नई कछु प्रीति पहिचानिये ॥ ५४२॥ (८७) बातिक तिलक। श्रीमती "रत्नावतीजी” राजा "मानसिंह" के छोटे भाई "माधवसिंह” की रानी थीं, जिनकी वार्ता वर्णन होती है । आपके