पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८२४

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भक्तिसुधास्वाद तिलक । ८०५ Howeredromewom समीप जो दासी थी सो हरिभक्ता, सानुराग स्वास भरती हुई नाम रटा करती थी। सुनके रानी के हृदय में भी कुछ प्रेम प्राजाता था। एक दिन यह दासी "नवलकिशोर, नन्दकिशोर, वृन्दावनचन्द्" इत्यादि नाम सप्रेम कह रही थी, और नेत्रों में जल भर रहा था, श्रीरत्नावतीजी भी सुनते ही विकल हो गई, और नाम यश सुनने की चाहना हुई। ___ यह नवीन दशा होने से आप उस दासी की प्रीति कुछ पहिचानने लगीं। (६८५) टीका । कवित्त । (१५८) "चार बार कहै, कहा कहै ? उर गहै मेरौ, बहे हग बहै नीर हो, शरीर सुधि गई है"। "पूछो मत बात, सुख करौ दिन रात, यह सदै निज गात, रागी साधु कृपा भई है। अति उतकंठा देखि, कहो सो विशेष सब. रसिक नरेसनि की बानी कहि दई है । टहल छुटाई, औं सिरहाने ले बैठाई वाहि, गुरु बुद्धि आई, यह जानौ रीति नई है ।। ५४३॥(८६) वात्तिक तिलक । रानी उस टहलनी से पूछने लगी कि "तू बारम्बार क्या कहती है ? किसका नाम लेती है ? मेस हृदय पकड़कर तू अपनी ओर खींचे लेती है ।” रानी के भी नेत्रों में जल की धारा चलने लगी, देह की सुधि भूल गई॥ दासी ने उत्तर दिया कि “भाप यह बात मत पूछिये, दिन रात अपने राजसी सुख में लीन रहिये, मुझपर अनुरागी साधु की अलभ्य कृपा हुई है. सो उस प्रेम के अलौकिक सुख दुख को मेरा ही तन मन सहता है।' तव तो गनीजी की अतिसय उत्कण्ठा हुई, बोली कि “अवश्य ही मुझे सव बात बताव ॥" ___ उसने अति श्रद्धा देख विशेष प्रेमपथ की वार्ता वर्णन कर कुछ रसिक- राज भक्तों सन्तों की वानी और कथा कह सुनाई।