पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८२५

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८०६ Huawent- श्रीभक्तमाल सटीक । दो० "नेह नेह सब कोउ कहै, नेह करौ मति कोइ । मिले दुखी विछुरे दुखी, नेही सुखी न होई ॥ १॥ नेह स्वर्ग ते ऊतखो, भूपर कीन्हों गोन । गली गली ढूँढ़त फिरे, विनासिर को धर कौन॥२॥ विरह असी जा उर धसी, लसी रसीली प्रीति । चहत न मरहम घाव पर, यह प्रेमिन की रीति ॥३॥ प्रेम कठिन संसार में, नहिं कीजै जगदीश। जो कीजै तो दीजिये, तन मन धन अरुशीश॥४॥ धनि वृन्दावन धाम है, धनि वृन्दावन नाम । धनि वृन्दावन रसिकजन, धनि श्रीश्यामाश्याम ॥५॥ श्राली होली सुखद तेहि, जो श्रीसियपद पास । रूपकला फगुनहट लहि, अरवति रहति उदास ॥ ६॥ इत्यादि उपदेश सुन, उस दासी को सेवा टहल करना छुड़ाके रानी ने अपने शीश की ओर बैठाया, और गुरुबुद्धि करके, उसका बहुत मान मर्याद आदर सत्कार करने लगी। यह नवीन प्रीति की रीति जानना चाहिये ।। (६८६) टीका । कवित्त । (१५७) निसि दिन सुन्यौ करै, देखिये को अरवरे, देखे कैसें जात जलजात दृग भरे हैं । कछुक उपाय कीजै, मोहन दिखाय दीजै, तब ही तो जीजे वे तो पानि उर अरे हैं। दरशन दूर, राज छोड़े लोटैधूर, पैन पावै छवि पूर, एक प्रेमबस करे हैं। करौ हरिसेवा, भरि भाव धरि मेवा पकवान रस खान, दै बखान मन धरे हैं ॥ ५४४॥(८५) बात्तिक तिलक। - अब तो दिन रात उसी दासी के मुख से प्रभु रूप माधुरी का बखान और चरित्र सुना करती थीं; सुनते सुनते प्रभु के देखने की अतिशय चाह उत्पन्न हुई। मन और नेत्र अति विकल हुए । प्रेम के अश्रु बहने लगे। दासी से कहा कि "कुछ उपाय करके मनमोहन के दर्शन करा दो तब ही मेरा जीवन है, क्योंकि वे मेरे हृदय में समा गये हैं।" उसने कहा कि