पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८२६

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५०७ 44 ++amanna भक्तिसुधास्वाद तिलक। "महारानी ! दर्शन तो बहुत कठिन हैं, दर्शनाभिलाषी लागे राज छोड़के धूल में लोटते हैं, अनेक उपाय करते हैं, परन्तु उस छविसमुद्र के दर्शन नहीं पाते । हाँ, उसके वश करने का यत्न एक "प्रेम" ही है, इससे आप प्रेमभाव में परायण होकर, श्रीहरि की भोग पूजा सेवा में लगिये । उसमें अनेक रसीले मेवा पकवान वस्त्र भूषण फूल माला आदिक सब सानुराग अर्पण करिये ॥" श्रीरत्नावतीजी ने दासीजी का कहना सब अपने मन में लिया। (६८७) टीका । कवित्त । (१५६) इन्द्रनीलमणि रूप प्रगट सरूप कियो, लियो वहै भाव यों सुभाव मिलि चली है। नाना विधि सग भोग लाड़को प्रयोग जामैं, जामिनी सुपन जोग भई रंग रली है ॥ करत सिंगार छबिसागर न वारापार रहत निहारिवाही माधुरी सो पली है । कोटिक उपाय करै, जोग जज्ञ पार परै, ऐ पै नहीं पावै यह दूर प्रेम गली है ।। ५४५ ॥ (८४) वात्तिक तिलक। रानीजी, इन्द्रनीलमणि के स्वरूप प्रगट करा, प्रतिष्ठापूर्वक, भावसे अपनी उपदेशिका दासी के सुभाव में मिलकर, सेवा करने लगी। नाना प्रकार के राग भोग से लाड़ लड़ाती और प्रेम गुन गाती रात्रि में स्वप्न भी उसी सेवा अनुराग का देखती थीं। दिन में श्रृंगार करके अपार छविसागर की छवि देखती रहती थीं। केवल प्रभु की माधुरी से पुष्ट रहने लगीं। __कोई कोटान उपाय करे, योग यज्ञ व्रतादिकों को करके पार हो जाय, परन्तु इस प्रेमपथ को सहज नहीं पा सक्का, प्रेममार्ग विलक्षण है। (६८८) टीका । कवित्त । (१५५) देख्योई चहति तऊ कहति "उपाय कहा ? अहो, चाह वात कहो कौनको सुनाइये"? । कहौ जू बनावौ दिग महल के ठऔर एक चौकी ले बैठावी चहूँ और समझाइये ।। भावे हरि प्यारे तिन्हें ल्या वे लिवाय इहाँ, रहै ते धुवाय पाँच रुचि उपजाइये । नाना