पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८२७

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44444444++440MME + + g ++ + +या+ - +- -+4.14 श्रीभवतमाल सटीक । विधि पाक सामा श्रागै यानि धरै, आप डारि चिक देखो, स्याम गान लखाइये ।। ५४६ ॥ (८३) वात्तिक तिलक। रानीजी प्रभु को साक्षात देखना चाहती ही हैं, तथापि कहती है कि "क्या उपाय करूँ ? प्रभु के दर्शन की चाह की बात किसको सुनाऊँ ?" तव हितकारिणि दासी ने शिक्षा की कि "अपने राजगृह के पास श्राप एक 'संतसेवाशाला' बनवाइये, चारों ओर सावधान मनुष्यों की चौकी बैठा दीजिये, भाज्ञा दे दीजिये कि जो कोई हरिके प्यारे भक्त साधु था उनको सादर विनय कर इस सन्तनिवास में लिवा लावं और यहाँ के लोग चरण धोकर श्रासन विछा वैठाके नाना प्रकार के पकवान भोजन आगे घर भोजन कराया करें । आप ऊपर से चिक डालके दर्शन किया करें। तब श्यामसुन्दर प्रभु नेत्रों से दीख पड़ेंगे ॥" श्रीमती रत्नावतीजी ने ऐसा ही किया, और करने लगीं। (६८९) टीका । कवित्त । (१५४) श्राव हरिप्यारे साधु सेवा करि टारे दिन किहूँ पाँव धारे जिन्हें ब्रजभूमि प्यारिये । जुगुलकिसोर गाः, नैननि बहाः नीर, है गई अधीर रूप दृगनि निहारिये ॥ पूछी वा खवासी सों "जु रानी' कौन अंग ? जाके इतनी अटक संग भंग सुख भारिये।” चली उठि हाथ गयो, “रह्यो नहीं जात, श्रहो सहो दुख लाज बड़ी तनक विचारिय" ॥ ५४७॥ (८२) वात्तिक तिलक । प्रभु के प्यारे साधु आया करते उनकी सेवा कर कुछ दिन विताये। एक दिन किसी प्रकार ब्रजभूमि में रहनेवाले प्रेमी उपासक पधारे। युगुलकिशोर के यश गान कर नेत्रों से प्रेमाश्रु बहाने लगे। रानी उनके दर्शन करते ही अधीर हो, उस दासी से पूछने लगी कि “भला कहो तो मेरे अंगों में रानी कोनसा अंग है कि जिसके अनुरोध से मैं सत्संग सुख से विमुख हो रही हूँ ? अब तो मैं, इन