पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८२८

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८०९ MAMIRMIRainmentedHMMMMAHARAMRImmedia finimintinum भक्तिसुधास्वाद तिवक। संतों के विन सन्मुख हुए, चरण गहे, नहीं रहूँगी।" ऐसा कह, उठके, चल ही तो दिया । दासी ने हाथ पकड़ रोका, परन्तु आपने कहा कि, "मुझे अब मत रोको, क्योंकि लज्जा तो बिचारी बहुत छोटी है और संत चरणवियोग का दुख बड़ा भारी है ॥" (६९०) टीका । कवित्त । (१५३) "देख्यौं मैं विचारि, हरिरूपरससार ताकौ कीजिये प्रहार, लाज नि नी टारिय" । रोकत उतरि आई, जहाँ साधु सुखदाई, प्रानि उपटाई पाँय, बिनती लै धारियै ॥ सन्तनि जिमायवै की निजकर अभिलाष, लाख लाख भाँतिनि सौं कैसे कै उचारियै । आज्ञा जोई दीजै, गोई कीजै, सुख वाही मैं, जु, प्रीति अवगाही कही "करौ लागी यारिये"॥ ४४८ ॥ (८१) वात्तिक तिलक । "और मैंने अच्छे प्रकार से विचार कर देखा कि श्रीहरिरूप रस सब सुखों का सारांश है, सो लाज कुलकानि को तज,उसीको पान करूँगी।" निदान, वह रोकती ही रही, पर माप उतरके चली आई, उन सुखदाई सन्तों के चरणों में लिपटकर प्रार्थना करने लगीं। "मुझे अपने हाथों से सन्तों को प्रसाद पवाने की अभिलाषा लक्ष भाँति से अकथ- नीय हो रही है परन्तु जैसी आज्ञा हो उसीमें मुझे सुख है।" __ श्रीरत्नावतीजी की प्रथाइ प्रीति देख, सन्तों ने आज्ञा की कि "जिसमें तुमको सुख हो, सोई करो, वही हमको प्रिय है ॥" (६९१) टीका । कवित्त । (१५२) प्रेम मैं न नेम, हेम थारलै उमगि चली, गधार, सो परोसिक जिवाये हैं। भीजि गए साधु नेह सागर अगाध देखि, नैननि निमेखि तजी,भए मन भाये हैं ॥ चंदन लगाय आनि बीरीज खवाय, स्याम चरचा चलाय चख रूप सरसाये हैं। धूम परी गाँव, भूमि श्राये, सब देखिवेकों. देखि नृप पास लिखि मानस पठाये हैं ।। ५४६ ॥ (८०)