पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८२९

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८१० श्रीभक्तमाल सटीक। वात्तिक तिलक। प्रेम में नेम तो रहता ही नहीं.संतों की आबा, पाय, सुवर्ण के थार में भगवत् प्रसाद पदार्थ लेकर, प्रेमानन्द का जल नैनों में भर, उमंग से परोस के सबको भोजन कराया । रानी का समुद्रवत् अथाह प्रेम देख, साधुजन भी स्नेह में डब नेत्रों के निमेष तज मन भाते अानन्द में मग्न और प्रेम से प्रफुल्लित हो गये । श्रीरत्नावतीजी ने अपने कर कमलों से चन्दन लगा, ताम्बूल के बीड़े खिला, फिर बैठकर श्रीश्यामसुन्दरजी की चरचा सुनने लगीं। नेत्र रूप से सरसा उठे। रानीके राजगृह से बाहर चले आने की धूम नगर भर में आगई, सब लोग देखने को आये, राजसम्बन्धी लोगों ने यह बात लिखकर पत्र मनुष्यों के हाथ, राजा के पास भेज दिये ।। (६९२) टीका । कवित्त । (१५१) खै करि निसंक. रानी बैंक गति लई नई, दई तजि लाज, बैठी मोड़ान की भीर मैं । लिख्यो लै दिवान नर आये, सो बखान कियो, बाँच सुनि आँच लागी नृप के सरीर मैं । “प्रेमसिंह" सुत, ताही काल सो रसाल श्रायो, भाल पै तिलक, माल कंठी कंठ तीर मैं। भूपको सलाम कियो, नरनि जताय दियो, वोल्यो “श्राव मोड़ी के ₹" पस्यौ मन पीर मैं ॥ ५५० ॥ (७६) वात्तिक तिलक । मन्त्रियों ने यह लिखा कि "रानीजी निशंक हो, नई टेढ़ी चाल गहके, लाज तज, मोड़नि अर्थात मुड़िया वैरागियों के समूह में जाबैठी। माधवसिंह इस पत्र को पढ़, और पत्र लानेवाले जनों से वार्ता सुन, तन मन से जल गया । दैवयोग उसी समय, "श्रीरत्रावतीजी" के पुत्र प्रेमसिंहजी ने, रसाल भाल में तिलक कंठ में कंठी माला धारण किये आकर, राजा को प्रणाम किया । समीपी लोगों ने जताया कि "कुमारजी जुहार करते हैं।" "सलाम-=-जुहार, नमस्कार, प्रणाम ॥