पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८३०

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भक्तिसुधास्वाद तिवछ। ८११ राजा क्रोध से बोल उठा कि “मुंडी वैरागिनि का बेटा था" पिता के वचन सुन प्रेमसिंहजी के मन में बड़ा दुःख हुआ। (६९३) टीका । कवित्त । (१५०) कोप भरि राजा गयौ भीतर, सो सोच नयो, पाछे पूछि लयो, कह्यौ नरनि बखान के। तब तो विचारी, "अहो मौड़ा ही हमारी जाति," भयौ दुख गात, भक्ति भाव उर धान कै| लिख्यो पत्र माजी को "जु प्रीति हिये साजी जो पै सीस पर वाजी पाय राखौ तजि प्रान के। सभा मधि, भूप कही मोड़ी की विरूप भयो रहैं अब मोड़ी के ही भूलो मति जान के" ॥ ५५ ॥ (७८) वातिक तिलक । राजा क्रोध में भर गृह के भीतर चला गया। कुमार प्रेमसिंहजी ने सोचयुक्त, लोगों से इस वचन का हेतु पूछा, उन्होंने रानी का सब वृत्तान्त कह सुनाया। तब प्रेमसिंहजी ने विचारा कि “मोह। जो मैं मोड़ी का पुत्र हूँ, तो मैं भी मोड़ा (वैरागी) ही हूँ, अर्थात् मैं साधु हूँ, तो तो अच्छा है। अपनी माता का भक्ति भाव समझ बड़ा सुखी हुआ, और उसी क्षण इसने अपनी माताजी को पत्र लिखा कि "आपने जो भगवद्भक्ति प्रीति हृदय में धारण की, सो अब भली भाँति सत्य कीजिये, चाहे प्राण तज दीजिये परन्तु इस टेक को नहीं तजियेगा, क्योंकि आज मेरे सीस पर यह बीती कि राजा ने भरी सभा में 'मोड़ी का पुत्र'मुझको कहा, सो जिसमें अब मैं मोडीही का पुत्र रहूँ, इस बात को जानकर कदापि भूलिये नहीं ॥" (६९४) टीका । कवित्त । (१४९) लिख्यो दै पठाये वेगि मानस, लै पाये जहाँ रानी भक्ति सानी हाथ दई, पाती बाँचियै । भायौ चढ़ि रंग बाँचि सुत को प्रसंग, बार भीजे जे फुलेल, दूर किये, प्रेम सांचियै ॥ आगै सेवा पाक निसि महल वसत जाय, ल्याय याही ठौर प्रभु नीके गाय नाचिये । नृप भन्न त्यागि दियो, दियो लिखि पत्र पुत्र, भई मोड़ी आज, तुम हित करि जांचिये ।। ५५२ ॥ (७७)