पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८३१

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श्रीभक्तमाल सटीक। +-+-+ - me m ad eemaraman artermire वात्तिक तिलक । कुँवरनीने पत्र लिख दिल्ली से मनुष्य के हाथ भेज दिया । जहाँ भक्ति रस से भीगी रानीजी थी शीघ्र वहां लाके उसने पत्र दिया। पत्र पढ़, पुत्र की प्रार्थना सुन आपको प्रेम रंग का आवेश आ- गया, सच्ची प्रेमिन तो थी ही, उसी क्षण फुलेल से भीगे हुए बालों को मुड़वा कर मुंडी हो गई। आगे संतों को भोजन करा, रात्रि में राजस्थान में जा शयन करती थीं, अब उस दिन से उसी संतशाला ही में प्रभु को लाके दिनरात पूजा गान नाच भजन करने लगी, और राजा का अनादिक लेना छोड़ दिया ॥ उन्हीं मनुष्यों के हाथ पत्र लिख पुत्र को भेज दिया कि "आज तुम्हारी प्रेम प्रार्थना सुन, मैं सच्ची मोड़ी हो गई, तुम आनन्द से सच्चे मोड़ा (वैरागी) रहना ॥" (६९५) टीका । कवित्त । (१४८) गए नर पत्र दियो, सीस सो लगाय लियो, बांचि कै मगन हियो, रीझि बहु दई है। नौवत बजाई दार बांटत बधाई, काहू नृपत्ति सुनाई कही “कहा रीति नई है" ॥छ भूप लोग कह्यौ मिटे सब सोग भये मोड़ी के जू जोग स्वांग कियौ बनि गई है। भूपति सुनत बात, अति दुख गात भयौ, लयो वैर भाव चढ़यो त्यारी. इत भई है।। (५५३) (७६) वार्तिक तिलक । उन लोगों ने पत्र लेकर जा कुंवरजी को दिया, मेमसिंह पत्र को ले मस्तक में लगा, पढ़ कर प्रेमानन्द में डूब गये। और बहुत सा द्रव्य याचकों को बधाई बांट, द्वार पर मंगल के बाजे बजवाने लगे। किसी ने माधवसिंह से कहा कि "कुँवर के द्वार पर आज रीझ बटती, बधाई बजती है।" उसने कहा “पको कि यह नया प्रानन्द किस हेतु है ?" राजा के लोगों ने आकर पूछा । प्रेमसिंहजी ने उत्तर दिया कि "हमारी माता ने अब यथार्थ विरक्त भक्त भेष बना लिया, हम सच सच मोड़ी के हो गये। उसी आनन्द की बधाई है।