पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८३८

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HomeMIRa m anari menuirr+ + + m भक्तिसुधास्वाद तिलक। ८१९ और की, सो हम प्रगटकर सुनाते हैं। उस ग्राम में एक चेटकी (धूत) वैष्णव का वेश धारण किये आया, सो श्रीशालग्रामजी की पूजा करता था, चेटक यह करता था कि सिंहासन पर शालग्रामजी आपसे श्राप डोलते रहते थे। यह विचित्रता देख लोगों की भीड़ छा गई। स्वामी मथुरादासजी के शिष्यों को देखकर बड़ा भाव उत्पन्न हुआ, उसका प्रभाव कहकर, आपसे उन्होंने विनय किया कि “थोड़ा चलके उस रीति को देखिये ।" आप तो बड़े सर्वज्ञ थे, बोले कि “हमारे जाने से उसका हृदय दुखित होगा इससे नहीं जायेंगे।" (७०४) टीका । कवित्त । (१३९) ___ पाय परि, गये लैक, जाय ढिग ठाढ़े भये, चाहत फिरायौ, पैन फिरें सोच पखौ है। जानि गयो आप, कछु याही को प्रताप, ऐ पै मारौं करि जाप या विचार मन घसौ है ।। मूठ लै चलाई, भक्ति तेज आगे पाई नहि, वाही लपटाई, भयौ ऐसौ मानौ मखौ है । द्वै कार दयाल, ना जिवायो, समझायौ, प्रीतिपंथ दरसायौ, हिय भायौ, शिष्य कखो है ॥ ५६० ॥ (६६) वात्तिक तिलक । पर, शिष्य लोग चरणों में पड़के लिवा गये । आप मन में भगवन्नाम कीर्तन करते जाकर समीप में खड़े हुए । उसने शालग्रामजी को फिराना डोलाना चाहा, पर नहीं डोले फिरे । चेटकी को बड़ा सोच हुया जान गया कि "इसी का प्रताप है जो नहीं डोलते, इससे मैं अपने जादू का

मंत्र जपके इसको मार डालूँ।" यह मन में निश्चय कर (मारण मंत्र
की) मूठ चलाई॥
श्रीमथुरादासजी की भक्ति तेज के आगे वह प्राप्त नहीं हुई, वरंच

वह मूठ उलटकर उसी को लगी, मृतक समान हो गिर पड़ा। सुनके, दयालु हो, जाकर आपने जिलाया, और समझाकर उपदेश दे श्रीभगवद्भक्ति प्रीति का मार्ग दिखाया। तब जादू तज, आपका शिष्य हो, साधुता में प्रवृत्त हुआ, भगवद्धजन करने लगा। श्रीशालग्रामजी की सच सच पूजा करने लगा। - ... - ---