पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८४०

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८२१ भक्तिसुधास्वाद तिवक। (७०६) टीका । कवित्त । (१३७) हरिही के आगे नृत्य करे, हिये धरै यही, ढरै देस देसनि में जहाँ भक्त भीर है। "इंडिया सराय” मध्य जाइकै निवास लियौ, लियौ सुनि नाम सो मलेछ ज्ञाति “मीर" है। बोलिकै पठाये, “महाजन हरिजन सबै आयौ है सदन” गुनी ल्यावौ चाह पीर है । आनिकै सुनाई, भई बड़ी कठिनाई, "अब कीजै जोई भाई वह निपट अधीर हैं" ॥ ५६१ ॥ (६८) वात्तिक तिलक। श्रीनारायणदासजी का नियम था कि श्रीहरि की मूर्ति ही के आगे नाचते अन्यत्र नहीं, जहाँ जहाँ श्रीभगवद्भक्त वसते थे, उन्हीं देशों में विचरा करते थे । _एक समय 'हडियासराय" में एक भगवद्भक्त के घर में जा- के ठहरे, नृत्य गान किया, उसकी धूम ग्रामभर में हुई । हँडिया- सराय का अधिपति (हाकिम) म्लेच्छ जाति “मीर" था, सो सुन- कर उसने आपको संदेशा भेजा कि मेरे यहाँ महाजन भक्तजन सब कोई आये हैं, और मुझे भी बड़ी चाह है, सो अवश्य आइये । लोगों ने भाकर सुनाया ॥ ___ आपके हृदय में बड़ा संकट पड़ा, आपने कहा कि "मैं वहाँ नहीं जा सका।” फिर लोगों ने आकर कहा कि "वह आपके लिये बहुत अधीर हो रहा है, हाकिम है, जो आपको अच्छा लगे सो कीजिये ॥" (७०७ ) टीका । कवित्त । ( १३६ ) बिना प्रभु श्रा, नृत्य करियै न नेम यहै, सेवा वाके आगे कहीं कैसें विस्तारिये । कियो यों विचार ऊँच सिंहासन माला धरि तुलसी निहारि हरि गान कखो भारियै । एक ओर वैठ्यौ मीर निरखें न कोर इंग, मगन किशोररूप, सुधि लै वितारियै । चाह कछु वारौं परे औचक ही पान हाथ, रीमि सनमान कीनो मीचि लागी प्यारियै ॥५६२॥ (६७) वात्तिक तिलक । धापने उत्तर दिया, “यह मेरा नेम है कि 'प्रभु के ही आगे नृत्य

  • "मीर'•=सैयद= प्रतिष्ठित मुसलमान जाति ।।