पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८४१

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६२२ data-44 - 04-0 4 -04 -AMERAMILAIMeanemat+ श्रीभक्तमाल सटीक । करूँ अन्यत्र नहीं, और प्रभु के सेवास्वरूप उस यवन के आगे कैसे पधराऊँ ?" फिर सबका आग्रह देख, परवशता विचार कर, ऐसा यत्न किया कि ऊँचे सिंहासन पर श्रीतुलसीजी की माला विराजमान की, भावदृष्टि से श्रीभगवत् में और तुलसीजी में अभेद देख, अति उत्तम नृत्य गान किया। एक ओर वह “मीर" (यवनपति) भी बैठा था, उसकी दिशि भूलकर भी आपने न देखा । भाव की सबलता से युगलकिशोररूप में ऐमे मग्न हुये कि देहकी सुधि किंचित भी न रह गई। मानसी में श्री. प्रभु पर आपने कुछ नेवछावर करना चाहा, अचानक प्राण हाथ पड़ गये, युगलरूप में रीझ, सनमानपूर्वक, वही (प्राण ही) नेवछावर कर फेंक के, प्रभुको प्राप्त हो गए। नित्य विहार में जा मिले । श्रापकी मृत्यु हमको अतिही प्रिय लगी। सो० "प्राण तोर, मैं तोर, बुधि, मन, चित, यश, तोर सब । एक तुही तो मोर, काह निवेदी? तोहिं पिय ।" ( रूपकला) (७०६ ) छप्पय । ( १३५) गुनगन बिसद गोपाल के, एते जन भये भूरिदा॥ बोहिथ, रामपाल, कुँवरबर, गोबिन्द, मांडिले । बीत स्वामि, जसवन्त, गदाधर, अनंतानंद, भल ॥ हरिनाम- मिश्र, दीनदास, बछपाल, कन्हेरे जसगायन।गोस्, राम- दास, नारद, श्याम, पुनि हरिनारायन ॥ कृष्णजीवन, भगवानजन, श्यामदास, बिहारी, अमृतदा । गुनगन बिसद गोपाल के, एते जन भये भूरिदा ॥१४६॥ (६८) वात्तिक तिलक। श्रीभगवत् के विशद गुणगण सुयशरूपी बड़ाभारी दान देनेवाले अर्थात् कथनकर जीवों को सुनानेवाले इतने सुजन हुए, उनके नाम

  • श्रीवैष्णव, श्रीशालग्राम तथा श्रीतुलसी मे अभेद मानते है।। ।