पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८५

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+ + + + + श्रीभक्तमाल सटीक। कशिपु" हुए, दूसरे जन्म में वही "रावण और कुम्भकर्ण, एवं तीसरे जन्म में “शिशुपाल और दन्तचक्र ।” __जब हिरण्याक्ष को भगवत् ने वाराह अवतार लेके मारा, तब हिरण्य- कशिपु ने तप करके श्रीब्रह्माजी से वर माँगा कि किसी देशकाल में किसी अस्त्र-शस्त्र से किसी जीव से मैं मारा न जाऊँ। श्रीब्रह्माजी ने ऐसा ही वर दिया। उसकी श्री के गर्भ में श्रीप्रह्लादजीथे इसलिये श्रीनारदजी नेराजा इन्द्र से उसे बचाकर ज्ञानोपदेश किया। हिरण्यकशिपु अलौकिक वरपाके राजगद्दी पर बैठ देवतों को कष्ट देने लगा। परन्तु श्रीपह्लादजी जिसके बेटे हुए उसके भाग्य की क्या बात है । जब गुरुजी पढ़ाने लगे आपने "श्रीसीताराम सीताराम" की मधुरध्वनि करना प्रारम्भ किया। वरंच पाठ- शाला भर के लड़कों को इसी में लगा दिया। और इसके विरुद्ध यद्यपि उनके पिता माता गुरु ने लाख समझाया पर आपने भगवत् विमुख बाप की एक न मानी ॥ दुष्टपिता की आज्ञा से ये पहाड़ पर से गिराए गए,जल में डुबाये गए, आग में जलाये गए, हाथी तथा हत्यारों से प्राण लेने का उद्योग किया गया, विषदिया गया, यह सब किया, परन्तु जिस श्रीप्रसादनी के मुखार- विन्द पर अष्टमहार "श्रीसीताराम" नाम बसता था उनका एक बाल भी बाँका न हुभा । तव हिरण्यकशिपु खङ्ग निकाल क्रोध से लाल हो श्राप से पूछने लगा “वता तेरा रक्षक कहाँ है ?" आपने उत्तर दिया कि वह समर्थ सर्वव्यापी है" उसने पूछा कि "क्या वह इस खम्भे में भी है जिसमें तू बँधा है ?"श्रीभक्तराज महाराज बोले कि "हाँ निस्सन्ह ऐसा ही है उस मूर्ख तामसी ने ज्योंही उस खम्भे में मुष्टिका मारी, उस खम्मे में से महाभय- ङ्कर प्रचण्ड शब्द के साथ-साथ अति तेजोमय महाभयानक रूप ऐसा एक तेजोमयी मूर्ति उसको देखपड़ी कि जिसकोवह न तो मनुष्यही कह सकता था और न सिंह ही समझ सकता था। यह अद्भुत अवतार सायङ्काल समय वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को भक्तवत्सल भगवत् ने श्रीमहादजी के निमित्त लिया, "मुलतान"मैं कि जो उक्त कनककशिपु की राजधानी थी। बहुत काल तक लड़ाई होती रही। अन्त को सन्ध्याकाल में