पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८६

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HamarMa4-4..."Hund- भक्तिसुधास्वाद तिलक। घर के द्वार की देहली पर अपनी जाँघ पर रख के अपने नखों से उसका शरीर बिदार डाला। ब्रह्मा शिव इन्द्र तथा सब देवताओं की और विशेष करके श्रीप्रसादजी की स्तुति से प्रसन्न हो भक्ति वर दिया। और राजतिलक देके अन्तर्धान हो गए। सवैया। "भारतपाल कृपाल जो राम जहाँ सुमिरे तेहिको तहँ ठाढ़े। नाम प्रताप महामहिमा अकरे किय छोटेउ खोटेउ बाढ़े ॥ सेवक एक ते एक अनेक भए तुलसी तिहुँ ताप न डाढ़े। प्रेम बदौं प्रहलादहिं को जिन पाहन ते परमेश्वर काढ़े॥" - श्रीमह्लादजी के राज में भगवद्भक्ति कैसी फैली इसका कहना ही क्या है ॥ श्रीभगवत की भक्तवत्सलता की जय ॥ (८) राजर्षि श्रीजनकजी महाराज। पिता श्रीजनकजी महाराज योगिराज की महिमा वर्णन कर सके - ऐसा त्रिभुवन में कौन है ? भगवद्गीता में भगवत् ने प्रसंगतः श्रापही का नाम कहा है ("जनकादयः" अ. ३ श्लोक २०) जिनके ज्ञान वैरा- । ग्यरूपी प्रचण्ड प्रभाकर को देख श्रीशुकादि ऋषीश्वरों के भी हृदयकमल

विकशित होते थे।

___ चौपाई। । प्रणवौं परिजन सहित विदेहू । जिनहिं रामपद गूढ़ सनेह ।। । योगभोग महँ राखेउ गोई । राम विलोकत प्रगटेउ सोई॥ । जासु ज्ञान रवि भवनिशि नाशा। बचन किरण मुनि कमल विकाशा।। ' श्रापकी “सौहार्द निष्ठा" की बात ही क्या है कि जगज्जननी महा- । रानी श्रीजानकीजी ने ही जिनको स्वयं अपना पिता मान लिया, और । प्रभु ने भी "पितु कौशिक वशिष्ठ सम जाने"॥ (६) श्रीभीष्मजी। । श्रीभीष्माचार्यजी को बहुतेरे महाशयों ने “धर्म-कर्म" निष्ठा में पृष्ठ ६० में, बारहवाँ "धर्मस्वरूप" जानिये (अजामिल" नही)1 -- -- ---