पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८५१

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+ + + + + + ८३२ श्रीभक्तमाल सटीक । लगे । कोई संत प्रभु की बहुत सुन्दर श्याम मूर्ति अपने मंदिर में पधराने को लिये जाते थे, मार्ग में कूबाजी के यहाँ निवास किया, आपने मोहनीस्वरूप को देख, मन में विचार कर, प्रार्थना की कि “प्रभु मुझ पर कृपाकर रह जाते, तो भला था।" आपकी प्रार्थना सुन प्रभु वहाँ ही अचल हो गये, वे संत उठाने के लिये लाख उपाय करने लगे पर किंचित् भी नहीं टरे। श्रीकेवलजी ने हँसके कहा “अजी? हरि अनन्त है आपके उठाये नहीं उठेंगे, मुझपर प्रसन्न होकर यहाँ ही रहेंगे।" संत आपका वचन सत्य जान, छोड़कर चले गये। कूबाजी ने अति प्रसन्न होकर कहा कि मेरे हृदय की बात जान गये इससे आपका नाम "जान- राय" जी है, प्रभु को पधराके सुख से पगसेवा करने लगे। (७२०) टीका । कवित्त । (१२३) चले द्वारावति, “छाप ल्याएँ," यह मति भई, श्राज्ञा प्रभु दई, फिरि घर ही को आये हैं। “करौ साधुसेवा, धरौ भाव दृढ़ हिये माँझ, टरी जिनि कहूँ, कीजै जे जे मन भाये हैं। गेह ही में संख चक्रमादि निज देह भए, नये नये कौतुक प्रगट जग गाये हैं। गोमती को सागर सौ संगम सो रह्यो सुन्यौ, सुमिरनी पठायकै यों दोऊ लै मिलाये हैं ॥ ५७१ ॥ (५८) वात्तिक तिलक। कूबाजी के इच्छा हुई कि दारिकाजी जाके शंख चक्रादिक छाप ले आऊँ' सो घर से चल दिये । भगवत् की आज्ञा हुई कि "तुम हृदय में दृढ़ भाव रखकर साधुसेवा करो, यहाँ से न टरो कहीं नहीं जाच, तुम्हारे मन में जो जो अभिलाषा होगी सो सब यहाँ ही पूर्ण हो जायगी।" आज्ञा मान लौटके घर ही चले आये । श्रीजानरायजी के समीप ही शंख चक्रादिक छाप आपके वाहों में स्वतः अंकित हो गये । इत्यादिक नवीन नवीन कौतुक तथा चमत्कार प्रभुकृपा से प्रगट देख सब जगत यश गान करने लगा। गोमती और समुद्र के बीच में बड़ी स्ती है,