पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८५२

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भक्तिसुधास्वाद तिब। समुद्र की लहर आने से दोनों का संगम हो जाता है, एक समय लहर आना संगम होना बन्द हो गया। श्रीकेवलजी ने सुना कि संगम न होने से माहात्म्य की हानि हुई, और रेती उड़ने से वहाँ के लोग बड़े दुखी हैं। तब आपने श्रीसीतारामनामस्मरण करने की अपनी सुमिरनी माला भेज दी । उसको रख देने से गोमती समुद्र का संगम पूर्ववत् होने लगा। (७२१) टीका । कवित्त । (१२२) भए शिष्य शाखा, अभिलाषा साधु सेवा ही की, महिमा अगाध, जग प्रगट दिखाई है। आये घर संत, तिया करति रसोई, कोई प्रायो वाको भाई, ताको खीर लै बनाई है । कूबाजी निहारि जानी याको हित दूसरों सौ कीजियै विचार एक सुमति उपाई है। कही "भार ल्यावो जल" गई डरि कलपै न लई तसई सब भक्तनि जिमाई है ॥५७२॥ (५७) बातिक तिलक । श्रीकेवलजी के अनेक शिष्य और पशिष्यों की शाखाएँ हुई, उन सबको साधुसेवा ही की अभिलाषा उत्तरोत्तर बढ़ी, क्योंकि श्रीकूबाजी ने संतसेवा की अथाह महिमा प्रत्यक्ष दिखा दी। एक दिवस गृह में संत आये दैवसंयोग से उनकी स्त्री का भाई भी आ पड़ा, आपकी स्त्री ने संतों के लिये नित्य की सी रसोई की, पर अपने भाई के लिये खीर बनाई, कूबाजी ने यह चरित्र देखकर विचारा इसकी प्रीति अपने भाई में है, इससे मैं ऐसा उपाय करूँ कि अपने प्यारे भाइयों को खीर खिला हूँ, नारी को आज्ञा दी कि "जा जल भरला" वह गई परन्तु डरती हुई कि 'खीर खिला न दें, आपने तुलसी छोड़ प्रभु को अर्पणकर सब तसमई हरिभक्तों को पवा दी। (७२२) टीका । कवित्त । (१२१) बेगि जल ल्याई, देखि भागिसी चराई हिये, झाँके मुंह भाई, दुख- सागर बुड़ाई है । विमुख विचारि, तिया कूबाजी निकारि दई, गई पति कियो और, ऐसी मन आई है । परसोई अकाल बेटा बेटी सो न पाल सक, तक कोऊ ठौर मति अति भकुलाई है । लिये संग