पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८५४

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५३५ भक्तिसुधास्वाद तिलक। (७२४) टीका । कवित्त । (११९) कियौ प्रतिपाल तिया पूरी को अकालमास भयो जब समै विदा कीनी उठि गई है। अतिपछितात वह बात अब पावै कहाँ ? जहाँ साधुसंग रंग सभा रसमई है ॥ करें जाको शिष्य, संतसेवाही बतावै "करौ जो अनेक रूप गुन चाह मन भई है" नामाजू बखान कियौ, मोको इल मोल लियौ, दियो दरसाय सब लीला नितनई है ॥५७५॥ (५४) बार्तिक तिलक। जबतक अकाल के मास पूर्ण नहीं हुए, तबतक पति पुत्रों के सहित उस स्त्री को भोजन दिलाया, फिर समय होने पर बिदा कर दिया, चली गई । यह रसमई संतसभा के संग का प्रेमरंग देख, उसने मन में अति पश्चात्ताप किया ? परन्तु वह बात अब कैसे पासकै ? श्रीकूबाजी जिसको शिष्य करते, उसको संतसेवा ही का इस प्रकार उपदेश देते थे कि "जो तुम्हारे मन में भगवत् के रूप गुणों की चाह हुई है तो प्रीति से यही करो।" __ श्रीप्रियादासजी कहते हैं कि जो नालास्वामीजी ने बखान किया, "केवल कूबै मोल लियो” सो मैंने आपकी नित्य नवीन लीला कहकर दरसा दी कि श्रीकेवलजी संतसेवा ही के लिये "कूबा" हुए । संतों की जय, संतसवियों की जय ॥ ( ७२५ ) छप्पय । ( १०८) श्रीअन अनुग्रह तें भये, शिष्य सबै धर्म की धुजा॥ जंगी, प्रसिद्ध प्रयागं, बिनोदी, पूरन, बनवारी । नर- सिंह, भलभगवान, दिवाकर, दृढ़ व्रतधारी ॥ कोमल हृदै किशोर, जगत, जगन्नाथ, सलूधौ । औरौ अनुग उदार खेम, खीची, धरमधीर, लघुऊधौ ॥ त्रिविध ताप मोचन सबै, सौरभ प्रभु निज सिर मुजा। श्रीअग्र अनुग्रह तें भये, शिष्य सबै धर्म की धुजा ॥१५०॥ (६४)