पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८७

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श्रीभक्तमाल सटीक । NON-Adm in लिखा है। श्रीभीष्माचार्यजी माठ वसुओं में से एक “वसु" के अवतार हैं। इनकी माता साक्षात् “श्रीगंगाजी" और पिता महाराज "शन्तनु" जी हैं। इनकी प्रशंसनीय कीर्ति "महाभारत" इत्यादि में देखने ही सुनने योग्य है । ज्ञान वैराग्य भक्ति और धर्मशास्त्र के बड़े ही विज्ञ प्राचार्य हुए हैं, बड़े ही पर उपकारी थे यहाँ तक कि महाभारत की कठिन लड़ाई में श्रीयुधिष्ठिर महाराजके लिये, अपने मरने का उपाय श्रापही बता दिया, आपने पाणशय्या पर शयन किया, मौरपर्व का पर्व नीतिव्याख्या की। महाभारत में भगवान अपनी प्रतिज्ञा बोड़ के महाभागवत भीष्मजी के प्रण को पूरा करने के निमित्त अपने भक्त अर्जुनजी के हितार्थ स्थ का चक्र लेकर भीष्मजी पर दौड़े, यहाँ तक भक्तवत्सलता भगवत् की देखिये ।। बावन दिन पर्यन्त शरशय्या पर रह के सन्त और भगवन्त के समागम में प्राण परित्याग किया। श्रीकृष्ण भगवान के सामने ही परमधाम को गए। (१०) श्रीवलिजी। राजा बलिजी श्रीप्रह्लादजी के पौत्र (विरोचन के पुत्र) "धर्म कर्म" निष्ठा में वर्णित हैं । इनने १०० (एकसौं) यज्ञ का संकल्प करके यज्ञ करना श्रारम्भ किया। सुरेशमाता श्रीअदितिजी ने भगवत् से विनय किया कि बलि मेरे बेटे (इन्द्र) का राज लेके इन्द्रपद की अचलता के निमित्त यज्ञ कर रहा है । भगवत् ने "श्रीवामनरूप” धारण कर राजा बलि से तीन डेग पृथ्वी भीख मांगी। यद्यपि दैत्यकुलगुरु शुक्रजी ने बलि को रोका, पर इनने उनकी एक न सुनी और दान दे ही दिया। पृथ्वी नापने के समय वामन से विराद होकर हरि ने दोनों लोक (स्वर्ग पाताल) नाप लिये, और शेष तीसरे डेग की जगह । बलिजी ने अति हर्षित मन से अपना शरीर निवेदन कर दिया। प्रभु ने । प्रसन्न हो अगले जन्म में सुरपुर का राज्य और तत्काल इस जन्म में । पाताल का राज्य बलिजी को अनुग्रह किया । केवल इतना नहीं वरन् । -- --- --