पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८६५

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८४६ श्रीभक्तमाल सटीक। gu + + वात्तिक तिलक । दोनों गुरुवन्धुषों के हृदय में संतसेवा की बड़ी प्रीति थी, सज्जन ऐसे सुखदाता थे कि दोनों ने मिलके एक नवीन उत्तम रीति चलाई। जहाँ संतसेवा महोत्सव में बुलाये जाते, वहाँ अति आनन्दपूर्वक घर से घृत श्राटा आदिक सामग्रीगाड़ी में भरले जाके चुपचाप भंडारी कोठारी को दे, उनकी सामग्री में मिलवा देते थे। इसका तात्पर्य यह कि जिसमें कहीं सामग्री घटने से सज्जनों की निन्दा न हो। इस बात को उत्सव- करनेवाले नहीं जानते थे । जब सामग्री पूर्ण हो जाय तव सुख मानते थे। ___ दोनों गुरुभाइयों के श्रीगुरु स्वामी जगत् में प्रसिद्ध महिमायुक्त सिद्ध थे, उनसे दोनों हाथ जोड़ आप दोनों ने विनय सुनाये, कि- (७३८) टीका । कवित्त । (१०५) । चाहत महोछौं कियो हुलसत हियो नित, लियौ सुनि बोले “करी वोगदै तियारिया " चहुँदिशि डाखौ नीर, कखौ न्योतो ऐसे धीर, श्राचे बहु भीर संत, ठोरनि सँवारियै ॥ आए हरिप्यारे चारौ खूटतें निहारे नैन, जाय पगुधार सीस विनै लै, उचारिये । भोजन कराय दिन पाँच लगि लाय रहे पट पहिराय सुख दियो अति भारिये ॥५८२॥ (१८) वार्तिक तिलक। "हे नाथ । संत महोत्सव करने के लिये हृदय में नित्य हुलास होता है।" सुनकर स्वामीजी ने कहा कि “अच्छा है, शीघ्र जुटाव बनाव करो । संतों का नेवता हम यहाँ ही से किये देते हैं।" ऐसा कह जल लेकर चारों दिशाओं में डाल दिया। ऐसे धीर समर्थ थे कि सब संतों के यहाँ नेवता पहुँच गया । आपने श्राज्ञा दी कि "संतों की बड़ी भीड़ श्रावेगी रहने के लिये छाया ठौर बनायो।" ऐसा ही किया । चारों खूट से हरिप्यारे संत आ विराजे, दोनों भाइयों ने नेत्रों से दर्शन प्रणाम कर, श्रीगुरुचरणों में सीस नवाके विनय सुनाया कि "महाराज ! संत तो बहुत प्राये, सामग्री इतनी कहाँ है ?" श्रीगुरु ने भाज्ञा की कि "जितना मनमाने उतना

  • "तियारियै"=

=तैयारी=बनाव, जुटाव ।