पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८६६

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441 +tamund HP44HDont- भक्तिसुधास्वाद तिलक। ८४७ दो, घटेगा नहीं, देनेहारे प्रभु समर्थ हैं ।" आज्ञा सुन, सुखी हो, भोजन कराके, पाँच दिन तक सत्कार किये, फिर संतों को वखादिक पहिनाके बड़ा भारी सुख दिया। (७३९) टीका । कवित्त । (१०४) प्राज्ञा गुरु दई “भोर भावी फिरि अासपास, महासुखराशि नामदेव जु'निहारिये ।” उज्ज्वल बसन तन एक ले प्रसन्न मन, चले जात बोग सीस पायनिपै धारियै ॥ वेई दें बताय 'श्रीकबीर' अति धीर साधु, चेले दोऊ भाई परदक्षिना विचारिये ॥ प्रथम निरखि “नाम" हरखि लपटि पग लगि रहे छोड़त न बोले सुनो धारिये ॥ ५८३ ॥ (४७) तिलक। श्रीगुरुदेवजी ने दोनों शिष्यों को आज्ञा दी कि “बड़े प्रभात इस संतशालाकी प्रदक्षिणा करना, उज्ज्वल वस्त्र धारण किये अकेले प्रसन्न मन चले जाते हुए महासुखराशि श्रीनामदेवजी का दर्शन तुमको होगा. शीघ्रही चरणों में सीस रख प्रणाम करना, फिर श्रीनामदेवजी ही परम धीर साधु श्रीकबीरजी का दर्शन करा देंगे।" ___ श्राबा सुन दोनों भाई परिक्रमा को चले । पहिले श्रीनामदेवजी का दर्शन पा हर्षित हो चरणों में लिपटगये, छोड़ते न थे, तब श्रीनामदेवजी ने कहा कि "अब चरण छोड़के हमारा वचन सुनो।” (७४०) टीका । कवित्त । (१०३) । “साधु अपराध जहाँ होत तहाँ श्रावत न, होय सनमान सब संत तोही बाइयै । देखि प्रीति रीति हम निपट प्रसन्न भए,” लये उर लाय "जावो श्रीकवीर पाइये ॥" बागें जो निहार भक्तराज हग धार चली बोले हँसि श्राप “कोऊ मिल्यो सुखदाइये ।” कह्यो "हाँ ज,” मान दई भई कृपा पूरन यों, सेवाको प्रताप कहो कहाँ खगि गाइयै ॥ ५८४॥ (४६) वात्तिक तिलक । "सुनो, जहाँ साधुओं का अपराध होता है वहाँ हम नहीं आते, और जहाँ सब संतों का सम्मान होता है तहाँ ही हम पाते हैं,