पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८६७

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८४८ R AHA . . . . . . . . . . . श्रीभक्तमाल सटीक । तुम्हारी प्रीति रीति देख हम प्रसन्न हुए,” ऐसा कह दोनों को हृदय में लगा प्राज्ञा दी कि “जायो आगे श्रीकवीरनी को पायोगे ॥" ___ दोनों भक्त चलके देखें तो भक्तराज श्रीकवारजी चले जाते हैं चरणों में पड़ गये, नेत्रों से जल की धारा चलने लगी। श्रीकबीरजी ने हँसके पूछा कि "कोई और सुखदाई संत अर्थात् नामदेवजी तुमको मिले हैं ?" भक्तों ने उत्तर दिया कि "हाँ महाराज मिले ॥" उसी प्रकार श्रीकबीरजी ने भी दोनों को कृपा से मान दिया। इस प्रकार श्रीगुरु और संतों की पूर्ण कृपा पा, भगवत्प्राप्ति के अधिकारी हुये। कहिये, “संतसेवा का प्रताप कैसे कोई कह सकता है ?" दो० "जिन जिन भक्तनि प्रीति की, ताके बस भए अानि । सन होइ नृप टहलकिय, नामा (नामदेव) छाई छानि ॥ १॥ "जगत बिदित पीपा, धना, अरु रैदास कवीर । महाधीर, दृढ़ एकरस, भरेभक्ति गम्भीर ॥ २॥" (७४१) छप्पय । (१०२) कोल्ह कृपा कीरति विशद, परम पारषद सिप प्रगट ॥ आसकरन रिषिराज,रूपं भगवान,भक्तपुराचतुरदासजग अभै छाप, छीतर जु चतुर बर ।। लाखै अद्भुत,रायमलं खेम मनसा क्रम वाचा। रसिकरायमल, गौर देवों दामो- दरे हरिरँग राचा ॥ सबै सुमंगल दास दृढ़ धर्म धुरंधर भजन भट। “कील्ह कृपा कीरति विशद परम पारषद सिष प्रगट ॥ १५८ ॥ (५६) वार्तिक तिलक । श्रीगुरु कोल्हदेवजी की कृपा से सब शिष्य श्रीसीतारामजी के परम पारषद उज्ज्वल कीर्तिवाले प्रगट हुये ॥ (१)श्रीश्रासकरनजी राजर्षि ॥ . (२३) श्रीरूपदासजी, श्रीभगवानदासजी परम गुरु भक्त ॥