पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८६८

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भक्तिसुधास्वाद तिलक । (४) श्रीचतुरदासजी ने जगत् में अभै छाप पाया। (५६) श्रीछीतरजी अतिशय चतुर, श्रीलाखेजी बड़े अद्भुत ॥ (७)श्रीरायमलजी मन वचन कर्म से क्षेम (मंगल) युक्त ।। (218/201११) श्रीरसिकरायमल जी, श्रीगौरदासजी, श्रीदेवा- दासजी, श्रीदामोदरजी, श्रीहरि के प्रेमरंग में रंग गये॥ ये सब परम मंगलरूप श्रीरामदासत्व में दृढ़, धर्मधुरंधर,श्रीसीताराम- भजन के सुभट हुये ॥ ' (१९२) श्रीनाथभट्टजी। (७४२ ) छप्पय । (१०१) रसरास* उपासक भक्तराज,"नाथभट्ट निर्मल बयन॥ आगम निगम पुरान सार शास्त्रनिजु बिचायौ ।ज्यो पारौ दै पुटहिं सवनि को सार उघाखौ ॥ श्रीरूप सनातन जीव भट्ट नारायन भाख्यौ।सो सर्वस उर सांचि जतन करि नीके राख्यौ। फनी वंश गोपाल सुब, रागा अनुगा को अयन।रसरास उपासकभक्तराज,"नाथभट्ट" निर्मल बयन ।। १५६ ॥(५५) _ वातिक तिलक । 1 "रसरास" (शृंगाररस) के उपासक भक्तराज श्रीनाथभट्टजी निर्मल वचन बोलनेवाले थे । आगम और निगम पुराण सत शास्त्रों को विचारके सबों का सारांश निकालके जैसे पारा में औषधियों का पुट देकर सिद्ध रसायन बना लेते हैं ऐसे ही आपने रसायन कर लिया । जो श्रीरूपसनातनजी ने तथा श्रीनारायणभट्टजी ने प्रेम- भक्ति प्रतिपादन कथन किया था, सो सर्वस्व भले प्रकार यत्न से अपने हृदय में संचित कर रखा । फणीवंश में उत्पन्न ऊँचेगाँव-

  • रसरास-शृंगाररस, रसो की राशि, सर्व रसोवाला रस ।

श्रृंगाररसचाली समयसमय पर सब रसो का वर्ताव अर्थात् सर्वभाव से सेवाप्रेम करती हैं। इसी से इस रस के कई नाम है पृष्ठ १४ देखिये। परसपुंज" आदि।।