पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८७५

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Nagapur+ Huma nity श्रीभक्तमाल सटीक। ल्याउँ पाऊँ जौपै भाग मेरे” बढ़ी चाह अंग मैं ॥ कालिन्दी के तीर ठाढ़ी नीर हग, भूप लखी, रूप कछु और, कहा कहै वे उमंग मैं। कियो मने लाख बेर ऐपै अभिलाष राजा कीनी कुटी, भाए देस, भीले सो प्रसंग मैं ॥ ५६२ ॥ (३८) वात्तिक तिलक । आकर परशुरामजी की प्रीति देख, राजा ने भक्ति होने का हेतु पूछा । श्राप श्रीकरमैतीजी का सब वृत्तान्त सुनाके नेत्रों में आँसू भर कहने लगे कि “वह तो श्यामसुन्दर के रंग में रंग गई।" राजा ने कहा कि "मैं जाता हूँ लिवा लाऊँगा।" आपने कहा कि “महाराज ! श्राप मत जाइये, वह नहीं आवेगी।" तथापि राजा ने उत्तर दिया कि "मैं जाता हूँ जो दर्शन पाऊँ और लिवा लाऊँ तो मेरा बड़ा भाग्य उदय हो ।"प्रीति चाह की अधिकता से श्रीवृन्दावन में आकर देखें तो श्रीयमुनाजी के तीर में खड़ी नेत्रों में प्रेमजल भरके प्रभु का चिन्तवन कर रही हैं। राजा ने प्रणाम कर रूप अवलोकन किया तो कुछ और ही अकथनीय अनुराग के उमंग की प्रभा चमक रही है। राजा ने चलने की प्रार्थना की, पापने अभियुक्त उत्तर दे दिया। तब यहाँ ही कुटी बनाने को विनय किया। आपने तब भी वारंवार निषेध किया ॥ तथापि राजा ने ब्रह्मकुण्ड के पास एक कुटी बनवा ही दी। सो अब तक उपस्थित है। फिर राजा श्रीकरमैतीजी के दर्शन प्रेम से भीज देश में आकर भक्ति में तत्पर हुभा ॥ (१६०) श्रीखड्गसेनजी कायस्थ । (७५२) छप्पय । (९१) गोबिंद चंदगुन ग्रथन को “खर्गसेन” वानी विसद ॥ गोपी ग्वाल पितु मातु नाम निरनै कियौ भारी । दान केलि दीपक प्रचुर अति बुद्धि उचारी ॥ सखा सखी गोपाल, काल लीला में बितयौ । कायथकुल उद्धार