पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८७८

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++ +Panta r an-maat- भक्तिसुधास्वाद तिलक । दो० "काया कसो, कि बन बसों, इसो, रहो, गहि मौन। तुलसी मन जीते विना, मिटै न, है दुख जोन ॥१॥" "प्रेम नीर गंभीर अति, कोउ न पावत थाह । मीन लीन रसरसिक जो, सोई पावत ताह ॥ २॥" (७५५) टीका । कवित्त । (८८) पृथ्वीपति आयो वृन्दावन, मन चाह भई सारंग सुनावै कोऊ जोरा- वरील्याये हैं। वल्लभहूँ संग, सुर भरतही, छायो रंग, अति ही रिझायो, हग असुवा बहाये हैं ।। ठादी कर जोरि विनै करी, पै न धरी हिये, जिये, ब्रजभूमि ही, सो बचन सुनाये हैं । कैद करि साथ लिये दिल्ली ते छुटाय दिये "हरीदास तूंवर” नै आये पान पाये हैं ॥ ५६४ ॥ (३६) , वात्तिक तिलक । एक समय अवनीश (बादशाह सम्भवतः अकवर) वृन्दावन में पाया, मध्याह्न के समय उसके मनमें चाह हुई कि “यहाँ कोई अच्छा गानेवाला हो तो मुझे सारंग राग सुनावै ।" लोग इन्हीं को श्रति प्रशंसनीय प्रवीण जान, वल से लिवा लाये। एक वल्लभनाम गुणीगायक भी साथ में पाया, मिलके दोनों के स्वर भरते ही, अतिशय रंग छा गया सबके नेत्रों से प्रेम के आँसू बहने लगे। ___ अति प्रसन्नता से खड़ा होहाथ जोड़ भूपाल ने विनय किया कि “ मेरे साथ चलिये।'धापने उत्तर दिया कि “मेरा जीवन व्रजभूमि ही है इस को नहीं छोड़ सका।" . निदान, यवनराज वलात्कार पकड़ साथ में दिल्ली ले ही गया। वहाँ से राजा "तूंवर हरीदास” (पाटम नगर के राजा हरीदास तोदरजी राज- पूत) ने उससे प्रार्थना कर, श्रापको छुड़वा दिया। ब्रज में आए, प्रियतम .. के दर्शन पाए । “मृतक शरीर प्रान जनु भेटे॥" ___ जान पड़ता है कि ये श्रीवल्भाचार्यजी के सम्प्रदाय में थे। "जोरावरी"-silyजवरदस्ती, बलात्, वलसे।"कैद" वन्दी ।।