पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८७९

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८६० ++vends04- ना -Indut -4 श्रीभक्तमाल सटीक । (१६६) श्रीसोतीजी। (७५६) छप्पय । (८७) "सोती" श्लाघ्य संतनिसभा, दुतिय दिवाकर जानियो ॥ परमभक्ति परताप, धर्मध्वज नेजा * धारी। सीतापति को सुजस बदन शोभित अति भारी ॥ . जानकीजीवन चरण शरण थाती थिर पाई। नरहरि गुरु परसाद पूत पोते चलि आई ॥ “राम उपासक छापदृढ़, और न कछु उर आनियो । सोती श्लाध्य संतनिसभा, दुतिय दिवाकर जानियो । १६३॥ (५१) वात्तिक तिलक । संतों की सभा में परम प्रशंसनीय श्री “सोती" जी को दूसरे सूर्य जानना चाहिये, जैसे भानु का प्रताप होता है ऐसा ही आपका परम भक्तिरूपी प्रताप था । और धर्म की ध्वजा के दण्ड को धारण करनेवालों में उत्तम वीर थे। श्रीसीतापतिजी तथा श्रीसरयू अयोध्याजी का बड़े भारी सुयश कथन से आपका वदन अत्यन्त शोभित था। श्रीजानकीजीवनजी के चरणों की शरणागति रूप महानिधि आपके हृदय में स्थिर रक्खी हुई थी। __ श्रीगुरु "स्वामी नरहरिदास जी की कृपाप्रसाद से वह महानिधि पुत्र पौत्रों तक एक रस चली आई।"श्रीरामउपासक सोती" श्रापकी हद छाप थी। श्रीसीतारामजी के नाम रूप लीलाधाम प्रीति छोड़ मन में और कुछ भी नहीं चिन्तवन करते थे। दो० "राम सनेही, राम गति, राम चरण रति जाहि । तुलसी फल जग जन्म को, दियो विधाता ताहि ॥१॥" (१९७) श्रीलालदासजी। (७५७) छप्पय । (८६) जीवत जस, पुनि परमपद, “लालदास" दोनों "नजा" दण्ड । ।