पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८८०

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++deorandu M m mentarimantrimmediate- भक्तिसुधास्वाद तिलक । ............. १६१ लही ॥ हृदै हरीगुण खानि, सदा सतसँग अनुरागी। पद्मपत्र ज्यों रह्यो, लोभ की लहर न लागी॥ विष्णुरात सम रीति "बंधेरै” त्यों तन त्याज्यो। भक्त बराती वृन्द मध्य, दूलह ज्यों राज्यो ॥ खरी भक्ति "हरिषाँपुरें" गुरु प्रताप गाढ़ी गही। जीवत जस, पुनि परमपद, "लाल दास" दोनौं लही ।।१६४॥ (५०) कहते हैं कि मुसजिम हुक्मरा ( दाराशिकोह ) को इन महात्मा के कदमों में बड़ा एतवाद था ॥ वात्तिक तिलक। जीते में सुयश और शरीर त्यागने पर परमपद श्रीहरिकृपा से श्री- लालदासजी को दोनों दिव्य सम्पत्ति प्राप्त हुये । आपका हृदय श्री- हरिगुणों की खानि था। और सदा सत्संग के अनुरागी थे और जैसे जल में कमल का पत्र रहता है परंतु उसमें जल नहीं स्पर्श होता ऐसेही श्राप जगत् में थे पर जगत् के दोष लोभादिकों की लहर पापको नहीं लगी। जिस रीति से परीक्षितजी ने श्रीमद्भागवत सुनते समाप्त में तनु त्यागा, उसी प्रकार “धेरै” (बवेरे) ग्राम में आपने भागवत सुनते कथा पूरी होते ही शरीर त्याग दिया। जैसे वरातियों के वृन्द में दूलह सोहता है, ऐसे ही थाप भगवद्भक्तों के मध्य में शोभा पाते थे। आपने, गुरुस्थान “हरिषाँपुर” में रहके, श्रीगुरुप्रताप से उत्तम भक्ति प्रति दृढ़ता से ग्रहण की। इस प्रकार से यश तथा मोक्ष दोनों के आप भागी हुये ॥ (१९८) श्रीमाधव ग्वाल। (७५८) छप्पय । (८५) भक्तनि हित भगवतरची, देही "माधवग्वाल" की॥ निसिदिन यह विचार दास जिहि बिधि सुख पाऐं। तिलक दाम सों प्रीति, हृदै अति हरिजन भावें ॥ पर