पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८८१

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+4NFO Rampraaptamatara Pummer - admire- १६२ श्रीभक्तमाल सटीक । मारथ सों काज हिये स्वारथ नहिं जानै । दसधा मत्त मराल सदा लीला गुण गानै॥ आरत हरिगुण सील सम, प्रीति रीति प्रतिपाल की। भक्तनि हित भगवत रची, देही "माधव ग्वाल" की ॥१६५॥ (४६) वात्तिक तिलक । श्रीभगवद्भक्तों के हित करने ही के लिये "श्रीमाधवग्वालजी" के देह को श्रीब्रह्माजी ने रचा। जिस प्रकार भगवद्दासों को सुख प्राप्त हो, उसी विचार में दिन-रात लगे रहते थे । तिलकदाम (उर्द्धव पुण्ड और कण्ठीमाला)से बड़ी ही प्रीति थी, और उसके धारण करनेवाले हरिजन आपके हृदय में प्रति प्यारे लगते थे। केवल परमार्थ से प्रयोजन रखते, स्वार्थ जानते ही नहीं थे । प्रेमाभक्ति से मत्त हंसके समान सदा हरिलीला गुणगानरूपी मुक्ता चुनते थे॥ चौपाई। "कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना । जाके श्रवण समुद्र समाना॥ भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। तिनके हृदय सदन सुभरूरे॥" दो० “यश तुम्हार मानस विमल, इंसिनि जीहा जासु। मुकताहल गुणगण चुनइ, राम बसहु मन तासु ॥ और हरिगुण सुनने के लिये सदा आर्त रहते थे। बड़े ही शील समतापूर्वक सबसे, और मुख्यतः हरिभक्तों के साथ, निर्मल अन्तःकरण से प्रीति रीति प्रतिपाल करते थे। चौपाई। रामभक्त प्रिय लागहिं जेही । तेहि उर बसहु सहित वैदेही ॥" (१९६) श्रीप्रयागदासजी। (७५९) छप्पय । (४) "श्रीअगर मुगुरु” परतापतें, पूरी परी “प्रयाग की ॥ मानस बाचक काय रामचरणनि चित दीनौ ।