पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८८२

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- - भक्तिसुधास्वाद तिलक । भक्तिन सों अति प्रेम, भावना करि सिर लीनौ ॥रास मध्य निर्जान देह दुति दसा दिखाई। "आडौं बलियों' अंक महोछौ पूरी पाई॥ "क्यारे" कलस औली ध्वजा, विद्वष श्लाघा भाग की। "श्रीअगर सुगुरु" परतापते, पूरी परी "प्रयाग” की। १६६ ॥ (४८) वात्तिक तिलक। श्रीसीतारामकृपा से स्वामी श्री ६ अग्रदासजी को गुरु पाके, उनके प्रताप से "श्रीप्रयागदासजी" की भगवद्भागवत में भक्ति हुई और सब प्रकार से पूरी पड़ी। मन वचन कर्म से श्रीसातारामजी में तत्पर हो युगल चरणों में चित्त लगाया । और भगवद्भक्तों से प्रति प्रेम भावना कर, उनको आते देख माथे से लेते, अर्थात् चरणों में मस्तक रख आगे से लेकर सेवा किया करते थे। । एक समय. "पारा बलिया" ग्राम में संतसेवा की उत्तम ध्वजा गाड़ने का और "क्यारे ग्राम" में भगवन्मंदिर में कलश चढ़ाने का महोत्सव - था, दोनों ठिकाने से आपको नेवता पाया । एकही दिन दोनों उत्सव में एक शरीर से कैसे जा सके और एक उत्सव में जाने से एक का अपमान होता इससे विचारकर दोनों ग्राम के मध्य में बैठकर दोनों उत्सव करनेवालों से विनय किया कि “इसी ठिकाने से दोनों ओर पंगति बैठा दो और दोनों ओर से पूरी परसते चले आओ दोनों ओर से पूरी प्रसाद दो, मैं दोनों उत्सवों का प्रसाद पाऊँगा ।" लोगों ने कहा कि “कोसभर का अन्तर दोनों ग्रामों में है, इतनी पंगति के लिये पदार्थ नहीं पूजेगा।" आपने भाज्ञा दी कि "श्रीगुरुप्रताप से सब पूरा पड़ जायगा।" ___ लोगों ने ऐसा ही किया। आपने दोनों महोत्सवों की पूरी प्रसाद पाया, और सवों ही के लिये सब पदार्थ पूरा पूरा हो गया । ___ अन्त में रासलीला होती थी उसमें प्रभु की प्रत्यक्ष छवि श्रापको दीख पड़ी, उसी समय देह त्यागकर भगवद्धाम को प्राप्त हुये।