पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८८४

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Hum + M ediaNPr i + +- - - - भक्तिसुधास्वाद तिलक । दासों के संग में निरत भजन में रत हुये । जीवों के ऊपर उदार दृष्टि कर (समीप ही वृन्दावनवास छोड़) आगरे में रहकर, वहाँ के लोगों को कथा सुनाके पावन कर भवपार उतार दिया। दो० "परहितरत, सियरामपद, भक्ति, सदा सत्संग। सहज विराग, उदार जे, का वन ? का गृहरंग ?॥॥" “जे जन रूखे विषय, पुनि, चिकने रामसनेह। से बसि नित सियरामपद, कानन रहहिं कि गेह ॥ २॥" (७६१) टीका । कवित्त । (८२) प्रेमनिधि नाम, करें सेवा अभिराम स्याम,आगरी सहर निसिसेस जल ल्याइयै । बरखा सु रितु जित तित अति कीच भई, भई चित चिंता कैसे अपरस आइयै ॥ जौ अंधकार ही मैं चली तो विगार होत, " चले यों विचारि "नीच छुवै न सुहाइये" । निकसत द्वार जब देख्यौ सुकुमार एक हाथ में मसाल “याकै पीछे चले जाइयै” ॥ ५.६५, ॥ (३५) बात्तिक तिलक । श्रीप्रेमनिधि नाम के भक्त श्रीश्यामसुन्दर की पूजा सेवा अति अभि- राम करते थे। आगरे नगर में रहते, नित्य कुछ रात्रि रहते ही श्रीप्रभु के लिये यमुनाजल लाया करते थे। । एक दिवस वर्षा के ऋतु में मार्ग में जहाँ तहाँ कीच हो गई । रात्रि थोड़ी शेष थी, तथापि अंधकार बड़ा था, आपके मन में चिन्ता हुई कि | "किस प्रकार से अछूत जल लाऊँ ? प्रकाश होने पर जाऊँ तो लोगों से छू जायगा जो अँधेरे में जाऊँ तो भी ठीक नहीं।" फिर मन में ठीक किया कि "अन्धकार में चलना ही अच्छा है, नीच तो नहीं छुयेंगे।" । ऐसा निश्चय कर घर से निकलते ही देखते क्या हैं कि "एक सुकुमार हाथ में प्रकाश लिये आगे जा रहा है ॥" दो० "प्रेम कि-निधि प्रति प्रेमनिधि, भखौ प्रेम उर जाल । सोई मूरति धारिक, प्रगट भयो तेहि काल ॥ १॥" __ "दीप हाथ लिये ढीठ अस, यमुना तट जो चोर ।