पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८८९

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८७० 44100-11A1A10400-HA TH रा . . . . श्रीभक्तमाल सटीक। (७६६) टीका । कवित्त । (७७) दौरे नर ताही समै बेगि दै लिंवाय ल्याये, देखि लपटाये पाँय नृप हग भीजे हैं। “साहिब तिसाये, जाय अवहीं पियावौ नीर, और पैन पावे, एक तुमही पै रीझे हैं ॥ लेवौ देस गाँव,” “सदा पीवहीं सो लाग्यौ रहों, गहों नहीं नेकु धन पाय बहु छीजे हैं" । संग दे मसालताही काल में पठाये, यों कपाट जाल खुले, लाल प्यावौजल, धीजे हैं।। ६००॥ (३०) वात्तिक तिलक। यवनराज की आज्ञा से उसी क्षण लोग दौड़े जाके श्रीमनिधिजी को लिवालाये, बादशाह देख नेत्रों में प्रेम के आँसू भर आपके चरणों में पड़के कहने लगा कि “साहिब को तृषा लगी है, और के हाथ से नहीं पीते, एक आप ही पर प्रसन्न हैं, आप शीघ्र अभी जाकर जल पिलाइये, और मुझसे देश गाँव जो चाहिये सो लीजिये, मुझे दास समझिये, मैं सदा चरणों ही से लगा रहूँगा।" मापने उत्तर दिया कि “मैं उसी से लगा रहता हूँ धन कुछ भी नहीं लूँगा मुझको बहुत धन मिला और चला गया । धन अनित्य है।" ' वादशाह ने उसी क्षण प्रकाश के साथ आपको घर भेजवा दिया। सब किवाड़ खुले, बाके स्नानकर, आपने प्रभु को जलपान कराया। आप प्रसन्न हुये और प्रभु भी प्रसन्न हुये । श्रीप्रेमनिधिजी की जय । प्रेम की जय जय जय ।। ' (२०१)श्रीराघवदास द्ववलौजी। (७६७) छप्पय । (७६) "दुबलो” जाहि दुनियाँ कहै, सो भक्त भजन मोटौ महंत ॥ सदाचारगुरुशिष्य, त्याग विधि प्रगट दिखाई। बाहेर भीतर बिसद, लगी नहिं कलिजुग काई । राघौ रुचिर सुभाव असद आलापन भावै। कथा कीर्तन नेम मिलें संतनि गुन गावै ॥ तायतोलि पूरौ निकष, =ससार। साहिब-ole=प्रभु।। "मसाल'=Jair=प्रकाश । * "दुनियाँ"=