पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८९०

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a n grammarparda HIN+ Marath i भक्तिसुधास्वाद तिलक। ८७१ ज्यौं घन अहरनि हीरौ सहत । “दूबलों” जाहि दुनियाँ कहै, सो भक्त भजनमोटौ महंत ॥१६८ ॥ (४६) वात्तिक तिलक । जिन राघव को संसार के लोग “दुबलेजी" वा "वरजी" कहते हैं. सो भगवद्भक्ति और नामस्मरण भजन में बड़े मोटे महंत थे। सुन्दर आचार तथा गुरु शिष्य की रीति त्यागविधि आपने अपने आचरणों से प्रगट दिखा दिया। बाहर और भीतर हृदय से अति निर्मल थे। कलियुग की कोई मलीनता नहीं लगने पाई। "श्रीराघवदासदुबलेजी" का स्वभाव बहुत ही अच्छा था क्योंकि आपको असदू वार्ता का कहना सुनना मिय नहीं लगता था । संतों में मिले हुये नियम से श्रीहरिकथा नाम कीर्तन प्रभु के गुणों को सदा गाते थे। जैसे सुवर्ण को तपाय के कसौटी में कसने से चोखाई की परीक्षा होती है और हीरा की अहनि (निहाई) पर रखकर धन की चोट सहने से परीक्षा होती है ऐसे ही श्राप गुरु संतों की चोट सहनेवाले परीक्षा में पूरे थे, भक्ति, भजन और सत्संग में मोटे महन्त थे। अपने पदों में आप “दुबारा" व "दुवर" छाप (भोग) रखते थे। (७६८) छप्पय । (७५) दासनि के दासत्त को, चौकस चौकी ए मड़ी। हरिनारायणं, नृपति पदम, “बेरछै" बिराजै । गाँव "हुसंगाबाद” अटल, ऊँधौ, भलछाजै ॥ भेलै तुलसी- दास, भट ख्यात, देवकल्यानौ । बोहिथ बीराराम- दास, "सुहेलै" परम सुजानौ ॥ "औली" परमानंद कै, ध्वजा सबल धर्म की गड़ी। दासनि के दासत्त को, चौकस चौकी एमड़ी॥१६६॥ (१५) वात्तिक तिलक । श्रीभगवद्दासों की दासता के लिये, ये चौकस चौकी मढ़ी हुए