पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८९७

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+prartuguard a n ata ७८ श्रीभक्तमाल सटीक । किसी ने उन दूतों की नहीं सुनी। तब बहुत भारी सेना आई, सेनापति ने कहा कि "राजा को हमारी बात सुनाओं" लोगों ने वह बात भी टाल दी। तब सेनापति लोग क्रोध से अति आतुर हुये ॥ (७७६) टीका । कवित्त । (६७) कहिकै पठाई “कहाँ कीजियै लराई” सुनि रुचि उपचाई चलि पृथी- पति आयो है । पखो सोच भारी, तव वात यों बिचारि कही “श्राप एक जावो,"गयौ अचिरज पायो है । सेवा करि सिद्धि, साष्टांग हैके भूमि परे, देखि बड़ी बेर, पाँव खडग लगायो है। कटिगई एड़ी, ऐपै टेढ़ीह न भौंह करी, करी नित नेम रीति धीरज दिखायो है ।।६०३॥ (२७) वात्तिक तिलक । सेनापति ने बादशाह के पास कहला भेजा कि "यदि आज्ञा हो तो हम युद्ध का प्रारंभ करें, क्योंकि हमारा वृत्तान्त राजा के पास कोई भी पहुँचाता ही नहीं।" सुनकर बादशाह के मन में राजा के देखने की रुचि उत्पन्न हुई। स्वयं आया। ___ तब राजा के मंत्री श्रादिकों को बड़ा सोच पड़ा, विचार कर यवना- धीश से बोले कि “केवल एक आप मंदिर के भीतर जाइये।" मनमें आश्चर्य मान भीतर जाकर देखा कि "प्रासकरनजी पूजा समास कर भूमि में पड़े साष्टांग प्रणाम कर रहे हैं ॥" दो० "प्रेम सहित अँसुधन ढरै, धरे युगल को ध्यान । नारायण ता भक्त को, जग में दुर्लभ जान ॥" ध्यानयुक्त बड़ी बेर पड़े देख, यवनराज ने राजा के चरण में धीरे से खड्ग मारा । अापकी एड़ी कटगई तथापि न दुख का कुछ भान, और न भौंह तक टेढ़ी हुई। जिस प्रकार नित्य प्रणाम करने का नियम था उसी प्रकार धैर्य देखने में आया ॥ चौपाई। "मन तहँ जहँ रघुवर वैदेही । बिनु मन, तन दुख सुख सुधि केही ॥"