पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८९८

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८७९ भक्तिसुधास्वाद तिलक । (७७७) टीका । कवित्त । (६६) - उठि चिक डारि, तब पाछे सो निहारि, कियौ मुजरा विचारि, बादशाह श्रति रीझे हैं । हित की सचाई यहै, नेकु न कचाई होत, चरवा चलाई भाव सुनि सुनि भीजे हैं। बीते दिन कोऊ नृपभक्त सो समायो, पृथीपति दुख पायो, सुनी भोग हरि छीजे हैं। करें विष सेवा तिन्है गाँव लिखि न्यारे दिये वाके पान प्यारे लाड़ करौ कहि धीजे हैं।॥६०४ ॥ (२६) वात्तिक तिलका। फिर उठकर प्रभु के मंदिर में चिलमन (व्यवधान, चिक) डाल, पीछे देखा, बादशाह को खड़े पा, यथोचित जोहार किया प्रादाब बजा- लाया। बादशाह, राजा की भक्ति प्रीति नियम की सचाई तथा दृढ़ता देख विचारकर अतीव प्रसन्न हुआ। फिर कुछ भाव भक्ति का प्रश्न किया। श्रीशासकरनजी के मुख से उत्तम उत्तर सुन, सरस हृदय होकर, चला गया । चौपाई। "जो प्रभु से सच्चा सो जीता। श्रीहरि साँचे मन के मीता ॥" कुछ कालान्तर में वह भक्त राजा (श्रीआसकरनजी) भगवत् धाम को पधारे, वादशाह सुन बड़ा दुखी हुआ । पीछे यह भी सुना कि "उनके प्रभु को भोग राग यथार्थ नहीं लगता।" तब पूजा सेवा करने वाले ब्राह्मणों को राज्य से न्यारे प्राम लिख दिया और कहा कि "श्रासकरनजी के प्राणप्यारे प्रभु को यथार्थ पूजन प्रेम लाड़ प्यार किया करो।" ब्राह्मण वैसाही करने लगे। यवनराज अति प्रसन्न हुये ।। (२०७) श्रीहरिवंशजी। (७७८) छप्पय । (६५) निहिकिंचन भक्तनि भजे, हरि प्रतीति “हरिवंस" "मुजरा"=Ir=जुहार, प्रणाम । 1"चीजे है"-प्रसन्न, सुखी हुए।