पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९०६

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+ + + + + + + + + + +++ भक्तिसुधास्वाद तिलक। अपने पिता से कहा कि “मेरा उसी से विवाह कर दो।" दो० "विद्या अरु वेली, तिया, ये न गनै कुल जाति । जो इनके नियरे बसें, ताही को लपाति ॥ ५॥" प्रीति न जाने जात कुजात । भूख न जाने रूखा भात ॥" तब वह जो बड़ा राजा था कि जिसके राज के अंतर्गत जगदेव राजा था, सो उसने जगदेव को बुलाकर बहुत प्रकार समझाकर खुलके कहा कि “मेरी बेटी तुम लो॥ ___ इसने नहीं अंगीकार किया। तब उस राजाने जगदेव के मार डालने की आज्ञा दी। उसकी बेटी ने कहा कि "मैं उसके प्रेम में डूबी हूँ, मारो मत, मेरे सामने लाश्रो।" लोगों ने कहा कि "तुम्हारी मोर दृष्टि नहीं करेगा,” तब वह दुष्टा बोली कि "सीस काट के लाओ" जब मस्तक काटकर लाये, गजा की बेटी जगदेवजी के नेत्रों को देखने लगी, तब सीस का मुँह फिर गया। यह बात रीझने योग्य है ॥ (७८७) टीका । कवित्त । (५६) निष्ठा रिझवार रीति कीनी विस्तार यह सुनौ साधु सेवा हरीदास जू ने करी है । परदा न संत सौं है देत हैं अनन्त सुख रह्यो रुख जानि भक्त सुता चित धरी है। दोऊ मिलि सो रितु ग्रीषम की छात पर गात पर गात सोये सुधि नहीं परी है । दातुन के करिबे को चढ़े निसि सेस आप चादर उदाय नीचे पाए ध्यान हरी है ।। ६०६ ॥ (२१) वात्तिक तिलक। यह तो जगदेव रिझवार-निष्ठा विस्तार से वर्णित हुई । अब जिस प्रकार श्रीहरीदासजी ने साधु-सेवा की है सो सुनिये । अापके गृह में साधु मात्र को ओट (परदा) नहीं था, अनेक प्रकार से सेवा कर सुख देते थे। खान पान पाकर एक वेषधारी आपके यहाँ रह गया, सो हरीदासजी की कन्या से विषयासक्त हो गया । एक दिवस ग्रीष्म ऋतु में छत पर दोनों इकट्ठे सोते थे, श्रीहरीदासजी कुछ रात्रि शेष में प्रभाती (दतुअन) करने के लिये अकस्मात् कोठे पर चढ़े, सो