पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९०७

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८८ ++ न - -- -theme-N HRA श्रीभक्तमाल सटीक । दोनों को देख के हापना दुपट्टा अोढ़ाकर, नीचे आ श्रीभगवत का ध्यान करने लगे। दो० “या भव पारावार को, उलँघि पार को जाय। तिय छवि छाया ग्राहिनी, बीचहि पकरय बाय ॥ १॥ रसन सिसन संजम करै, प्रभु चरनन तर वास। तवहीं निश्च जानिये, राम मिलन की आस ॥ २॥" (७८) टीका । कवित्त । (५५) जागि परे दोऊ, अरबरे देखि चादर कों, पेखि पहिचानी सुता पिताही की जानी है । संत हग नये चले बैठे मग पग लये गये लै एकांत में यों विनती बखानी है ॥ "नेकु सावधान के कीजिये निसंक काज, दुष्टराज छिद्र पाय कहै कटुवानी है। तुमको जु नाव रै जरै सुनि हियो मेरो, डरै निन्दा आपनी न होत सुखदानी है ॥६१०॥ (२०) वात्तिक तिलक । दोनों जागे और दुपट्टा देख घबड़ा गये, कन्या ने पहिचाना कि यह मेरे पिता ही का वस्त्र है, नामका साधु ऊपर से उत्तर लजासे नेत्र नवाये चला, श्रीहरीदास मार्ग में नीचे बैठे थे देखकर, उसके चरणों में प्रणाम कर एकान्त में ले गये और विनयपूर्वक शिक्षा करने लगे कि “ऐसा कार्य युक्ति सावधानी से किया करिये, निःसंक होकर करने में दुष्ट लोग छिद्र देख पाय कटुबानी कहते हैं, आप सब संतों की निन्दा सुन मेरा हृदय जलेगा इससे मैं डरता हूँ, सन्त की निन्दा अपनी ही निन्दा है सो अपनी निन्दा सुख देनेवाली नहीं होती है (वा, सन्त की निन्दा अप्रिय है मुझे, और मैं अपनी निन्दा से नहीं डरता, वह तो सुखदाई है, "निन्दकपुरा प्राण हमारा")| (७८९) टीका । कवित्त । (५४) - इतनी जतावनी में भक्तिकों कलंक लगै, ऐपै संक वही, साधु घटती न भाइये । भई लाज भारी, विषैवास घोय डारी नीके, जीके दुख ससि चाहै कहूँ उठि जाइयै ॥ निपट मगन किये नाना विधि सुख दिये,