पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९०८

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१८९ भक्तिसुधास्वाद तिलक। दिये पै न जान, "मिल लालन लड़ाइये" गोविन्द अनुज जाके बाँसुरी को साँचोपन मन मैं न ल्यायौ नृप इहि विधि गाइये ॥ ६११॥(१६) वात्तिक तिलक । मैंने श्रापको इतनी बात जो जताई सो मैं उचित नहीं समझता मानो मेरी भक्ति में इतना कलंक सरीखा लगा, पर क्या करूँ? साधु की निन्दा वा घटती मुझे नहीं अच्छी लगती इससे इतना कहा है । सुनकर उस साधु को बड़ी भारी लजा और ग्लानि हुई, सब विषय दुगंध को छोड़ मन में बड़ा दुखी हो, वहाँ से चले जाने को चाहा; परन्तु आपने बहुत समझाकर उसको अनेक प्रकार का सुख दे रक्खा और कहा कि “मैं और आप मिलजुलकर प्रभु को लाइलड़ाएँ ।" श्रीहरीदासजी के छोटे भाई "श्रीगोविन्द” जी थे उनकी यह प्रतिज्ञा थी कि श्रीकृष्णचन्द्रजी के आगे और संतों के समीप में बहुत उत्तम नाँसुरी बजाते थे। यह सुन बादशाह ने कहा कि “मुझे बाँसुरी सुना दो र आपने किसी प्रकार उसके समीप नहीं बजाया। अपनी टेक नहीं छोड़ी। इस प्रकार हमने श्रीहरिदासजी की कथा गान की॥ "टेक एक बंशी तनी "जन गोविंद” की निर्वही ॥ युगलचन्द किरपाल तासु को दास कहावै । बादशाह सों पैंज हुकुम नहिं वेणु वजावै ॥ &c. &c. जिला मिर्जापुर “चुनार” के पण्डित श्रीभानुप्रतापतिवारी जी, जिन्होंने श्रीकबीरजी की साखी, तथा श्रीगोस्वामीजी की विनयपत्रिका और भक्तमाल को अंग्रेजी में उल्था किया है, इन महाशय से भी मुझे समय समय पर सहायता मिली है। इसके लिये इन महाशय को मेरे अनेक धन्यवाद हैं । शोक की बात है कि इनकी ये तीनों पुस्तकें छपी नहीं॥