८९२ श्रीभक्तमाल सटीक । कलिजुग्ग धनि । परमधर्म प्रति पोषकौं, संन्यासी*ए मुकुटमनि ॥ १८१॥(३३) वात्तिक तिलक। परमधर्म अर्थात् श्रीभगवद्भक्ति को अपने २ ग्रन्थद्वारा परमपुष्ट करनवाले ये सन्यासी सब सन्यासियों के मुकुटमणि के समान हरिभक्त हुये ।। (१) चितसुखानन्द सरस्वती ने गीता आदिक की चितसुखी टीका में श्रीभक्ति ही को सर्वोपरि वर्णन किया है। (२) श्रीदामोदरतीर्थजी ने श्रीरामाचेन चंद्रिका में श्री रामपूजन- विधि भक्तिपूर्वक वर्णन किये हैं। देखने योग्य है। (३) नृसिंहारण्यजी ने श्रीहरिभक्तिचंद्रोदय ग्रंथ सप्रेम निर्माण किया। (४५) मधुसूदन सरस्वतीजी ने भक्तिरसायन आदिक ग्रंथ बनाये । ऐसे ही माधवानन्द सरस्वतीजी हुये । इन्होंने परमहंस कीर्ति का लाभ लिया॥ (६) श्रीप्रबोधानन्दजी (७) श्रीरामभद्रसरस्वतीजी। (८) श्रीजगदानन्दजी श्रीहरिभक्तिमतिपोष करनेवाले कलियुग में धन्यतर हुये। (२१२) श्रीप्रबोनंदसरस्वतीजी। (७९३) टीका । कवित्त । ( ५०) श्रीमबोधानंद, बड़े रसिक श्रानन्दकन्द, श्री “चैतन्यचन्द" जु के पारखद प्यारे हैं । राधाकृष्णकुंजकेलि, निपट नवेलि कही, मलि रसरूप, दोऊ किए हग तारे हैं । बृन्दाबन बास को हुलास ले प्रकाश कियौ, दियो सुखसिंधु, कर्म धर्म सव दारे हैं। ताही मुनि सुनि कोटि कोटि जन रंग पायो, विपिन सुहायो बसे तन मन वारे
- "संन्यासी"-वैरागी, उदासी, बियोगी और विरक्त ॥