पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९१९

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९०० श्रीभक्तमाल सटीका हैं इसलिये थोड़ा सा अन्न रख छोड़ा है।" आपने कहा “वही निकाल के सन्तों को पवावो, प्रातःकाल और आवेगा।" शिष्य ने रसोई कर भोग लगा के सन्तों को दिया, सन्त प्रसाद पाकर सुखी हुये, श्रीगदाधरदासजी की सेवा रीति देख कहने लगे कि आपका यश सब जगत् गावेगा।" प्रातःकाल कुछ आया नहीं, प्रभु भूखे ही रह गये। तीन पहर बीत गये !! तब आपके शिष्य क्रोध कर कहने लगे कि "देखो, अब तक भोग नहीं लगा, हम लोग भूखे मरते हैं, न जानें इस दुःख को ब्रह्मा कब छुड़ावैगा ?" उसी समय कोई भक्त आकर श्री- गदाधरदासजी के सामने दो सौ रुपये पूजा रक्खी । आप बोल उठे कि “ये रुपये लेकर इसके माथे में मारो, जितनी इच्छा हो उतना पावे, भूख से व्याकुल हो रहा है ॥" (८०३) टीका । कवित्त । ( ४०) डखो वह साह, “मत मोपै कछु कोप कियौ ?” कियो समाधान सब बात समझाई है । तब तो प्रसन्न भयो अन्न लगै जितौ देत, सेवा सुख लेत, साधु रुचि उपजाई है ॥ रहे कोऊ दिन, पुनि मधुपुरी बास लियौ, पियो ब्रजरस लीला अति सुखदाई है। लाल लै लड़ाए, संत नीके भुगताए गुन जाने जिते, गाये, मति सुन्दर लगाई वात्तिक तिलक । आपके वचन सुन वह भक्त सेठ डर गया कि "स्वामीजी ने कुछ मुझ पर तो क्रोध नहीं किया।" तब श्रीगदाधरदासजी ने सब . बात समझाकर उस भक्त का समाधान किया । वृत्तान्त सुन सेठ । प्रसन्न हुआ, और जितना अन्न लगता उतना देने लगा। उत्तम रुचि से - । साधुसेवा का सुख लेने लगा। आप कुछ दिन वहाँ रहकर फिर श्रीमथुरापुरी में आकर बसे । प्रति । सुखदाई ब्रजलीलारस को पान किया, इस प्रकार आपने श्रीलालजी । को लाड़ लड़ाया और भले प्रकार संतसेवा का सुख लिया।