पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९२१

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Auddha 1 + श्रीभक्तमाल सटीक । आए हैं,)"भट्ट नारायन प्रति सरस, ब्रजमण्डल सों हेत, ठौर ठोर रचना करी, प्रगट कियो संकेत ॥” सो भास्करजी के पुत्र श्रीसनातन गोस्वामी के शिष्य थे। बताते हैं कि उनका जन्म संवत् १६२० (१५६३ ई०) में हुआ था । Sr George Crierson ने भी १५६३ ई० लिखी है । सं० १६८८ में आपका जन्म किसी ने भूल से लिखा है । श्रापका "ब्रजभक्तिबिलास" नामक ग्रन्थ श्रीराधाकृष्णदास के मतानुसार १५५३ ईसवी में बना । एक श्रीनारायणदास की कथा मूल १४६ कवित्त ५६ ११५६२ में कही है । और एक नारायणदासजी इस (मूल १८७) में वर्णित हैं । इत्यादि । इत्यादि ॥" श्रीतपस्वीरामजी सीतारामीय ॥ (८०५) टीका । कवित्त । (३८) आये बद्रीनाथजू ते, मथुरा निहारि नैन, चैन भयो, रहै जहां केसौजू को दार है। आवै दरसनी लोग जूतिन को सोग हिये, रूप को न भोग होत कियो यों विचार है ॥ करें रखवारी, सुख पावत हैं भारी, कोऊ जानै न प्रभाव, उर भाव सो अपार है । आयो एक दुष्ट पोट पुष्ट सो तो सीस दई, लई, चले मग ऐसौ धीरज को सार है ॥ ६१६ ॥ (११) वात्तिक तिलक। स्वामी श्रीनारायणदासजी बद्रीनाथ (बदरिकाश्रम) जी से आकर मथुराजी को नेत्रों से देख अति. मानन्दित हुये, फिर श्रीकेशवदेवजी के दार पर रहने लगे। वहाँ पर दर्शन करनेवाले लोग आते थे, उनके जोड़े . (पनही) चुरा ले जाने की संका मन में बनी रहती थी॥ दो. "हरि के मन्दिर जात हैं, हरिदर्शन के पास । लम्बी दंडवत करत, पर, चित्त पनहियन पास ॥" आपने विचार किया कि “इन सबको दुचितई से प्रभु के रूप दर्शन का सुख नहीं होता।" इससे आप द्वार पर बैठे जूतियों की रक्षा किया करते थे, गूढ़ और परहितरत सुभाव की बलिहारी । प्रभुरूपचिन्तवन से