पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९२२

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९०३ aldaktmaramanand +t omadumpemprdankandodiaent- भक्तिसुधास्वाद तिलक । भारी सुख में मग्न रहते थे, अन्तर के अपार प्रेमभाव का प्रभाव कोई नहीं जानता था। एक दिन एक दुष्ट आया, ऊपर का वैष्णव वेष आपके नहीं देखा इससे बड़ी भारी गठरी आपके सीस पर रखवायके ले चला, आपने कुब भी न कहा हरि ही की इच्छा समझे । ऐसे धर्य दीनता और ज्ञान का सारांश आपके हृदय में था। बलिहारी और जयजय आपकी॥ (८०६) टीका । कवित्त । ( ३७ ) ___ कोऊ बड़ी नर, देखि मग पहिचानि लिये, किये परनाम भूमिपरि, परिनेह कौ । जानिके प्रभाव, पाँव लीने महादुष्ट हूँ नै, कष्ट अति पायो, छुट्यौ अभिमान देह को ।। बोले आप “चिंता जिनि करो, तेरौं काम होत,"नैन नीर सोते "मुख देखौं नहीं गेह को"। भयौ उपदेश, भक्ति देस उन जान्यो, साधु सक्तिको बिसेस, इहाँ जानौ भाव मेह को ॥ ६२०॥ (१०) ___ वार्तिक तिलक। मार्ग में किसी श्रीमान भक्तनर ने देख पहिचानकर पूर्ण स्नेह से भूमि पर साष्टांग प्रणाम किया । तब वह दुष्ट भी भापका प्रभाव जान चरणों में गिर पड़ा, और देह का अभिमान बोड़ ग्लानि से दुखित हो रोने लगा। श्रीनारायणदासजी ने कहा कि “तुम चिंता मत करो, तुम्हारा यह कार्य मेरे शरीर से हुआ सो भला है ॥ दो० "क्षमा बड़ेन को चाहिये, शोलन के उतपात । कहा विष्णु को घटिगयो ? जो भृगु मारी लात ॥" यापके ऐसे साधुता के वचन सुन वह नेत्रों में जल भरके प्रार्थना करने लगा कि "मैं अब घर का और घर के लोगों का मुख नहीं देखूगा।" तब आपने कृपाकर उसको भक्तिमार्ग का उपदेश देकर कृतार्थ किया। देखिये, सन्तों की ऐसी शक्ति है कि जैसे मेघ दुष्ट और सजनों के खेत में समान वर्षा करते हैं, इसी प्रकार सन्त सब ही पर कृपादृष्टि वृष्टि कर कृतार्थ करते हैं।