पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९२३

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९०४ + -+-+-Prem - mantmenemiarter श्रीभक्तमाल सटीक । (२१६) श्रीभगवानदासजी। (८०७ ) छप्पय । ( ३६ ) भगवानदास श्रीसहित नित, मुहद सील सज्जन सरस। भजन भावारूढ़, गूढ गुन बलित ललित जस । श्रोता श्रीभागीत रहसि ज्ञाता अक्षर रस ॥मथुरापुरी निवास आस पद संतनि इकचित ।श्रीजुत “षोजी "स्याम"धाम सुखकर अनुचर हित ॥अति गंभीर सुधीर मति, हुलसत मन जाके दरस। भगवानदास श्रीसहित नित, सुहृद सील सज्जन सरस ॥१८८॥ (२६) वात्तिक तिलक। श्रीभगवानदासजी नित्य ही भक्ति श्री के सहित, सर्वभूतों के सुहृद, शीलवान, सरस हृदय युक्त, अति सज्जन हुये। श्रीभगवद्भजन भावना में प्रारुद, प्रभुके गूढ़ गुण और ललित यश से आच्छादित अन्तःकरणवाले थे। श्रीभागवत कथा के रहस्य के और अक्षरों के रस के जाननेवाले श्रोता थे। मथुरापुरी में वसते, और सन्तों के पद की अनन्य आशा चित्त में रखते थे। श्रीयुत खोजीजी तथाश्रीस्यामदासजी के गृह के सुखकारी हित- कारी सेवक शिष्य थे। अति गंभीर, सुन्दर धीर मति युक्त थे, और अपने दर्शन से सब जनों के मनमें प्रेमानन्द का उल्लास कर देते थे। (८०८) टीका । कवित्त । ( ३५) जानिबेकों पन, पृथीपति मन आई, यो दुहाई, लै दिवाई “माला तिलक न धारिय" । मानि आनि पान लाभ, केतकनि त्याग दिये, छिए. नहीं जात, जानि बेगि मारि डारियै ॥ भगवानदास उर भक्ति सुख रास भयो, कसौ लै सुदेस बेस, रीति लागी प्यारियै । रीझयौ नए देखि, रीझि, मथुरा निवास पायो, मंदिर करायो, “हरिदेव” सौ निहारिये ॥ ६२३ ॥ (४) . .-